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[हिन्दी-गव-निर्माण करता, दोनों के वरदान का पात्र क्योंकर बनता, और लक्ष्मी की यह अकृपा केवल धनाभाव के रूप में न प्रकट होती थी। उसकी सब से निर्दय क्रीमा यह थी, कि पत्रों के सम्पादक और पुस्तकों के प्रकाशक उदारतापूर्वक सहृदयता का दान भी न देते थे। कदाचित् सारी दुनिया ने उसके विरूद कोई षड्यत्र सा रच डाला था । यहाँ तक कि इस निरंतर अभाव ने उसमें .
आत्म-विश्वास को जैसे कुचल दिया था । कदाचित् अब उसे यह बात होने लगा था कि उनकी रचनाओं में कोई सार, कोई प्रतिभा नहीं है और यह भावना अत्यन्त हृदयविदारक थी। यह दुर्लभ मानव-जीवन यों ही ना हो गया ! यह तस्कीन भी नहीं कि ससार ने चाहे उसका सम्मान न किया हो, पर उसकी जीवन कृति इतनी तुच्छ नहीं। जीवन की आवश्यकताएँ घटते-घटते संन्यास की सीमा को भी पार कर चुकी थीं। अगर कोई सन्तोष था, तो यह कि उनकी जीवन-सहचरी त्याग और तप में उनसे भी दो कदम श्रागे थी। सुमित्रा इस दशा में भी प्रसन्न थी। प्रवीण जी को दुनिया से शिकायत हो; पर सुमित्रा जैसे गेंद में मरी हुई वायु की भाँति उन्हें बाहर , की ठोकरों से बचाती रहती थी । अपने भाग्य का रोना तो दूर की बात थी, इस देवी ने कभी माथे पर बल भी न आने दिया।
सुमित्रा ने चाय का प्याला समेटते हुए कहा-तो जाकर घंटा-आम घंटा कहीं घूम-फिर क्यों नहीं आते। जब मालूम हो गया कि प्राण दकर काम करने से भी कोई नतीजा नहीं, तो व्यर्थ क्यों सिर खपाते हो।
प्रवीण ने विना मस्तक उठाये, कागज पर कलम चलाते हुए कहा-लिखने में कम से कम यह सन्तोष तो होता है, कि कुछ कर रहा है। सैर करने में तो मुझे ऐसा जान पड़ता है कि समय का नाश कर रहा हूं।'
'यह इतने पढ़े-लिखे श्रादमी नित्य प्रति हवा खाने जाते हैं, तो अपन । समय का नाश करते हैं ?
'मगर इनमें अधिकांश वही लोग हैं जिनके सैर करने से उनका आमदनी में विलकुल कमी नहीं होती। अधिकांश तो सरकारी नोकर। जिनको मासिक वेतन मिलता है, या ऐसे पेशों के लोग हैं, जिनका होग