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भीष्माष्टमी ]
. . १८३ जाते हैं और उसके वाण सहते हुये उस पर शस्त्र नहीं फेकते हैं । आज उन्होंने अपनी उस प्रतिज्ञा को जो उन्होंने दुर्योधन से की थी, पूरी कर दिया है। और अब इस हत्याकाण्ड से हटा चाहते हैं।
सन्ध्या का समय निकट है; सूर्य अस्ताचल को जाने ही वाले हैं । अर्जुन ने शिखण्डी की आड़ से लड़ते हुये भीष्म जी के अंगों में वाण ही वाण बेध दिये हैं। उनका कवच टुकड़े-टुकड़े हो गया है। उनका शरीर भी शिथिल हो रहा है । भीष्म जी भी कह रहे हैं कि "जान पड़ता है कि ये सब बाण मुझे अर्जुन ही मार रहा है, क्योंकि न शिखण्डी के और न किसी के बाण मुझे इस प्रकार पीड़ा पहुंचा सकते हैं। तो भी टूटा ही कवच धारण किये वे लड़ रहे हैं और पाण्डवों की सेना विध्वंस करते हैं। . .
परन्तु-बस अव अधिक बल नहीं रह गया । रथ के टुकड़े हो गये हैं और महात्मा भीष्म रथ पर से पृथ्वी पर गिर पड़े हैं । परन्तु रोम रोम में फंसे शरों ने उन्हें प्राकाश ही मे रोक लिया है । वे पृथ्वी तक पहुँचने नहीं पाये हैं और शरशय्या पर सच्चे वीर के समान पड़े हैं । महात्मा भीष्म के गिरते ही चारों और हाहाकार मच गया है । युद्ध बन्द हो गया है। कौरव और पाण्डव । सभी कवच उतार और शस्त्र अलग धर महात्मा भीष्म के दर्शन के लिये दौड़ रहे हैं । उनके चारों ओर कौरव-पाण्डव ऑखों मे आँसू भरे उपस्थित . है। भीष्म जी का शिर लटका हुश्रां है । इस हेतु उन्हें तकिये की आवश्यकता हुई है । राजा लोग बहुत कोमल तकिये उनके शिर के नीचे रखने को उपस्थित कर रहे हैं । परन्तु उन तकियों को देखकर भीष्म जी कहते हैं कि “हे राजाओं ! ये तकिये वीरों की शय्याओं पर शोभा नहीं देते।
फिर अजुन को देखकर वोले- हे बेटा अर्जुन ! मेरा शिर लटकता है, तुम बहुत शीघ्र मेरे शयन के योग्य तकिया मुझे दे दो।" आँखों से
ऑसू बहाते हुये अर्जुन ने "जो प्राचा" कहकर और पितामह का प्राशय समझ गाडीव धनुष को हाथ में ले तीन वाणों से भीष्म जी के लटकते हुये शिर को सीधा कर दिया । भीष्म जी अर्जुन से बहुत ही प्रसन्न हुये और उसकी प्रशंसा करने लगे।