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[हिन्दी-गद्य-निर्माण नव दिवस व्यतीत हो चुके हैं। नव दिवस से वह रोम हर्षण संग्राम जिसमें । अन्तिम बार भारतवर्ष के प्रचण्ड वीरों का महत्व दिखाई पड़ा.था, बराबर हो रहा है। कुरुक्षेत्र की भूमि रुधिर की नदियों से रक्त-वर्ण हो गई है। मास और हड्डियों का विकट दृश्य आँख के सामने उपस्थित है । कायर अपने तुच्छ जीवन के मोह में पड़े भयभीत हो भाग रहे हैं, अपने क्षत्री धर्म में हन, शूरवीर शंखनाद और धनुष की टंकार के शब्दों से उत्तेजित हो इस असार संसार को और अपने नाशमान जीवन को धर्म के आगे तुच्छ समझते हुए उस घोर युद्ध में मुदित हो-हो कर प्रवेश कर रहे हैं, जहां पितामह भीष्म ने अपने वाणों मे मंडल बॉध अजुन के रथ को ढांक दिया है । और यहाँ वीर अजुन अपने तीक्ष्ण वाणों से भीष्म जी के हाथ में लिए हुये धनुषों को काट-काट कर गिरा रहे हैं और भीष्म जी अपने शिष्य की हस्तलाघवता की प्रशंसा कर प्रसन्न हो रहे हैं ।
भीष्म जी ने दुर्योधन को महाभारत श्रारम्भ होने से पहले बहुत समझाया था परन्तु उसके न मानने पर और उसकी ओर युद्ध करना अपना धर्म, जान भीष्म जी ने यह प्रतिमा की थी कि मैं दस सहस पाण्डवों के योद्धाओं को मारूँगा। आज वे उसी कठिन प्रतिज्ञा का पालन कर रहे हैं । युधिष्ठिर की सेना में श्राज प्रलय मच गया है। जिसी अोर पितामह के रथ प्रोर । वाण जाते हैं उसी ओर योद्धाओं की लोथें दिखलाई पड़ती है। पाण्डवों की सेना भीष्म जी के प्रचण्ड तेज के सामने आज ग्रीष्म ऋतु के सूर्य से तस गौ के समान निःसहाय और निर्बल हो रही है।
ऐसी अवस्था में पाण्डवों के सहायी श्रीकृष्ण जी अजुन के रथ को छोड़ भीष्म के मारने के लिए सिंह के समान गर्जते क्रोध से दौड़े हैं । उनको अपनी ओर आते देखकर भीष्म जी हाथ जोड़ कर कह रहे हैं कि ' कृष्ण, हे यादवेन्द्र, आप अाइये, श्रापको नमस्कार है । आप मुझे इस महायुद्ध में गिराइये । हे निष्पाप !.मैं श्रापका निस्सन्देह दास हूँ, श्राप इच्छानुः सार प्रहार कीजिये, आपके हाथों से मरना मेरा सब प्रकार कल्याण ही है।
भीष्म जी हाथ जोड़कर प्रसन्नचित्त यह कह रहे हैं और दूसरी ओर से