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हिन्दी में भावव्यंजकता . एवं अनौचित्य पर विचार करना ऐसी दशा में हमारे लिए नितान्त दुःसाध्य
हो जाता है । हम सरासर जानते हैं कि संस्कृत भाषा का व्याकरण मातृवध का दोषी है क्योंकि उसी के कारण उसकी माता संस्कृत भाषा मृत भाषाओं मे परिगणित हुई और आज तक उसकी यही दशा है । यदि हमारा. संस्कृत व्याकरण ऐसा कठिन न होता कि विना पूरे पच्चीस बरस . तक घोखे कोई व्यक्ति "अशुद्धं किं वक्तव्यं” के दोष से बच सकता, तो हमे ऐसी अवांछनीय दशा आज दिन न देख पड़ती कि हमारे पूर्व पुरुषो की प्यारी संस्कृत एक मृतभाषा हो जाती और ससार मे कहीं भी किन्हीं लोगों की मातृ भाषा न रह सकती। फिर भी आजकल के प्राचीन विचाराश्रयी महाशयगण सस्कृत , व्याकरण के यथासाध्य सभी आ सकनेवाले नियमों को हिन्दी के भावव्यंज- - कता-वृद्धि वाले गुण का यह परावलम्बन सबसे बड़ा शत्रु है । जिस काल से . किसी भाषा का व्याकरण उचित से अधिक बल प्राप्त कर लेता है, उसी
समय से उस हतभागिनी भाषा का स्वाभाविक विकास बन्द हो जाता है . और वह मृतभाषा बनने के मार्ग पर धावित होती है । इसलिए व्याकरण
माहात्म्य ह्रास भी भावव्यंजकता की वृद्धि के लिए आवश्यक है । विना इसके भावव्यंजकता किसी दशा में वढ नहीं सकती।
भावव्यंजकता का एक कृत्रिम सहायक भी हो सकता है जिसके लिए सम्मेलन को प्रयत्न करना चाहिए । मेरा तात्पर्य विज्ञान, दर्शनादि सम्बन्धी कोष से है। हिन्दी में एक ऐसा कोष बनाना चाहिए, जिसमें अनेकानेक विद्याओं के शब्दों का हिन्दी मे शब्द प्रति शब्द अनुवाद हो यह काम काशी नागरी प्रचारिणी सभा:ने कई अंशों मे सम्पादित करके हिन्दी पठित समाज का प्रचुर उपकार किया है। फिर भी प्रत्येक प्रारम्भिक श्रम का फल पूर्ण प्रायः नहीं होता है। इसी अटल नियमानुसार इस कोष मे गणना और उत्तमता में शब्द आवश्यकता से कुछ कम हैं। अनुवाद बहत स्थानों पर तो बड़े मार्के के हैं किन्तु कहीं-कहीं कुछ भद्दे भी हो गये हैं। इस कोष के श्राकार, उत्तमता तथा डङ्ग को उचित उन्नति देना सम्मेलन तथा हिन्दी-रसिकों का कर्तव्य है।