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________________ हिन्दी भाषा का विकास ] . . • निदान उस देववाणी वा वेदभाषा त्रिपथगा की इहलौकिक धारा वैदिक अपभ्रंश-गङ्गोत्तरी से जो आप प्राकृत नाम्नी गङ्गा बही तो जैसे सुरसरिता ' क्रमशः अनेक नाम और रूप धारण करतो कोड़ियों नदो-नद को अपने में लोन करती, भारत भूमि के प्रधान भागों को उपजाऊ बनाती, सैकड़ों में बँटकर समुद्र से जा मिली और जैसे गङ्गोत्तरी से चलकर प्रयाग तक जाह्नवी अपनी श्वेत धारा और सुधा-स्वादु सलिल के रूप 'और गुण को स्थिर रख सकी, किन्तु यमुना से मिलकर वर्ण में श्यामता और गुण मे वातुलता ला . चली उसी प्रकार आर्ष प्राकृत भी हिमालाय से लेकर कुरुक्षेत्र तक पाते अपने रूप और गुण को स्थिर रख सकी। इसके पीछे जनपद विस्तार क्रम के । अनुसार इसके रग, रूप और गुणों में भेद हो चला । तो भी भागीरथी के तुल्य उसकी प्रधान शाखा महाराष्ट्री की प्रधानता प्रारम्भ, से अवसान तक बनी रही । महाराष्ट्री शन्द से प्रयोजन दक्षिण देश से नहीं है, किन्तु भारत___ रूपी महाराष्ट्र से है। देश विशेष की भाषाएँ इसकी शाखा स्वरूप दूसरी ही, हैं। जैसे कि-शौरसेनी, श्रावन्ती, मागधी आदि । विश्वनाथ कविराज ने बहुतेरी भाषाओं के नाम बतलाये हैं, जिनमें अधिकाश प्रायः प्रधान प्राकृत : ही के भेद हैं और जिनकी सन्तति आज भारत की प्रचलित समग्र प्रान्तिक भाषाएँ हैं । यथा-पंजाबी, गुजराती, मराठी, बॅगला इत्यादि । 'निदान हमारी भारतभारती की शैशवावस्था का रूप ब्राह्मी वा देववाणी है। उसकी किशोरावस्था वैदिक भाषा और संस्कृत उसकी यौवनावस्था की सुन्दर मनोहर छटा है । उसकी पुत्री गाथा वा प्रधान प्राकृत की वैदिक अपभ्रंश भाषा शैशवावस्था आर्ष प्राकृत किशोरावस्था, और महाराष्ट्री तथा प्रान्तिक प्राकृतें यौवनावस्था है । उसकी दूसरा पुत्री वा शाखा पैशाची वा आसुरी की अनेक और अनेक शाखाएँ फैली। जैसे पश्चिमी की . क्रमशः पुरानी पारसी पहलवी वा वर्तमान फारसी और पश्तो आदि हैं, । जिनसे, यहाँ हमे कुछ प्रयोजन नहीं हैं। प्रान्तिक प्राकृतों की भी अनेक शाखाएँ फेली, जिनसे वच मान प्रचलित भाषाओं की उत्पत्ति है । उनका प्रथम रूप प्रान्तिक प्राकृत, दूसरा उनके अपभ्रंश और तीसरा वर्तमान
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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