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________________ हिन्दी भाषा का विकास ] की सामान्य भाषा वा राष्ट्रभाषा थी फिर राजभाषा अथवा नागरी भाषा हुई.। क्योंकि क्रमशः व्याकरण के नियमों से वह ऐसी जकड़ दी गई कि केवल पढे-लिखे लोगों से बोली और समझी जाने योग्य रह गई, जिसके पढ़ने के अर्थ मनुष्य की आयु भी पर्याप्त नहीं समझी जाती थी मानों वह , । उन्नति की चरमसीमा को पहुंच गई । इसीसे उसकी शिक्षा के अर्थ उस दूसरी लोकभाषा,को भी सुधारने और नियमबद्ध करने की आवश्यकता श्रा पड़ी। वह भाषा वैदिक अपभ्रंश वा मूल प्राकृत थी, जो बुधजन और विद्वानों से क्रमशः परिमार्जित होकर आर्ष प्राकृत कहलाई। मानों तभी से सेकेण्ड लैंगवेज (Second Language) का सूत्रपात हो चला। - बहुतरों का मत है कि प्राकृत ही से संस्कृत की उत्पत्ति हुई है,क्योंकि .. वेदों में भी गाथारूप से इसका अस्तित्व पाया जाता हैं और सस्कृत-नाम ही . मानों इसका साक्षी देता है । परन्तु यह केवल भ्रम है, जो प्राकृत व्याकरणों पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर सर्वथा दूर हो जाता है । क्योंकि वे सदैव संस्कृत ही का अनुकरण करते, संस्कृत ही से प्राकृत वनाने की विधि का विधान बतलाते और प्रायः देववाणी वा संस्कृत ही से उसकी सृष्टि की सूचना देते हैं । सारांश, संस्कृत प्रकृति से निकली भाषा ही को प्राकृत कहते हैं। - निदान इस प्रकार वह परिमार्जित वैदिक अपभ्रंश भाषा वा आर्ष प्राकृत,जिसकी क्रमशः अनेक शाखा प्रशाखायें होती गई, संस्कृत के प्रचार की न्यूनता के सग राष्ट्रभाषा बन चली और इस देश के चारों ओर विशेष विस्तृत हो प्रान्तिक प्राकृतों से मिलती-जुलती वहीं अन्त को महाराष्ट्री प्राकृत भी कहलाई। उस समय तक केवल पवित्र वैदिक धर्म ही की धूम थी। गुरुकुल, परिषद् और पाठालयों में वेदध्वनि की गुञ्जार और सत् शास्त्रों का अध्ययनाध्यापन होता रहा। चारो वर्ण और आश्रम अपने-अपने धर्म पर स्थित थे। सुख, स्वास्थ्य और आनन्द उत्सव का आश्रम वही देश वन रहा था। पै कछु कही न जाय, दिनन के फेर फिरे सव । दुरभागनि सो इत फैले फल फूट वैर जव ॥
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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