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[ हिन्दी गद्य निर्माण
उसके अपभ्रंश लोकभाषा से। वैदिक साहित्य में यथास्थान इन तीनों की मूल भाषाओं का अस्तित्व पाया जाता है, जैसे कि संस्कृत के नाटकों मे प्राकृत का !
जानना चाहिये कि सृष्टि वा कल्पारम्भ मे मानव सृष्टि के साथ जब ईश्वरीय वाक्शक्ति अर्थात् वाणी व सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ तो स्वभाव ही ने दिव्य प्रतिभावान व्यक्तियों के उच्चारण से स्वयं ब्राह्मी भाषा उत्पन्न हुई
• और दिव्य-संस्कार-सम्पन्न लोगों से अकस्मात् उसी अर्थ में समझी जाने लगी ।
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यों क्रमशः कुछ वाक्यवीजों ही के द्वारा शब्दशस्य की वृद्धि और वेद का प्रादुर्भाव मुख्य-मुख्य महर्षियों द्वारा हो चला । मानो अनादि वेद उसके ज्ञान का पुनः प्रकाश का क्रम चला । बहुतेरों के चित्त से यह श्राशङ्का होगी कि भाषा की सृष्टि भी क्या अकस्मात् हो सकती है । और वेद क्या ईश्वर ने वनाये हैं ? किन्तु ऐसे। ग्राशङ्काओं का अन्त नहीं है और न वे नई हैं । कितने को सब के मूल जगत् की सृष्टि और स्रष्टा ही में संदेह है। हमारे यहाँ भी ब्रह्म माया, जीव, जगत् वेद और शब्द सबको अनादि मान कर भी इनका भाव और तिरोभाव माना है । ईश्वर के विषय में भी आरम्भ मे अद्यावधि सख्य की श्राशङ्का है । यह विषय ही अत्यन्त उच्च और गूढ़ातिगूढ़ है, जो बिना श्राव्यात्मिक शक्ति के समझाई नहीं देता और न हम से सामान्य जनों को इसमें जिह्वासञ्चालन का अधिकार ही है । अस्तु ग्रास्तिकी का अपने धर्मग्रन्थों के अनुसार यह विश्वास अन्यथा नहीं कि सृष्टि के आरम्भ मे ईश्वर ने वेदों के द्वारा मनुष्यों को ज्ञान और कर्त्तव्याकर्त्तव्य का आदेश किया । कहीं उसे इन्द्र, ब्रह्मा वा कई देवताओं और ऋषियों के द्वारा श्राविर्भूत मानते, किन्तु कर्त्ता नहीं । श्राज भी वहुनेरे कारीगर चित्रकार और कविं ग्रुपने हाथ की कारीगरी करके भी उसे देख महर्षि वाल्मीकि जी की भौतिः स्वयं विमोहित हो आश्चर्य करके मान लेते कि यह संयोगात् हमारे हाथों वन गई है, हम मे इतनी योग्यता कदापि नहीं है । इसीसे हमारे देशवासी उच्चकोटि की कविताओं मे भी सरस्वती देवी की कृपा मानते हैं । यों ही किसी गुप्त शक्ति की प्रेरणा अनेक स्थलों पर स्वीकार करनी पड़ती है, क्योंकि जिहा रहते भी लोग नहीं
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