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प्रायश्चित ___ अर्थ-शून्य स्थानमें और प्रत्यक्षमें बिना दिये हुए पदार्थके एकवार ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त पूर्ववद एक बढ़ते हुए कायोत्सर्ग और उपवास हैं। चकारसे प्रतिक्रमण भी है। वार वार विना दिये हुए पदार्थके ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। भावार्थ-निर्जन स्थानमें बिना दिये हुए पदार्थक एकवार ग्रहण करनेका पतिक्रमण सहित एक कायोत्सर्ग और एक उपवास है। मिथ्याष्टियोंके न देखते हुए अपने साथियांके सामने एकवार अदत्त ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण पूर्वक दो कायोत्सर्ग और दो उपवास है। अगर मिथ्यादृष्टियोंके देखते हुए एकवार अदत्त ग्रहण करे तो प्रतिक्रमण सहित तीन कायोत्सर्ग और तीन उपवास प्रायश्चित्त है तथा सोना चांदी आदि अदत्तपदायों के ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है इतना विशेष समझना चाहिए। वारवार अदत्त ग्रहण करने का पंचकल्याणक मायश्चित्त है ॥१८॥ आचार्यस्योपधेरहीं विनेयास्तान् विना पुनः। सधर्माणोऽथ गच्छश्च शेषसंघोऽपि व क्रमात् ॥ . __ अर्थ---आचार्य के पुस्तक आदि उपकरणोंको ग्रहण करनेके योग्य उनके शिष्य हैं। शिष्य न हों तो उनके गुरुभाई हैं। गुरुभाई भी न हों तो गच्छ है। तीन पुरुषों के अन्वयको गच्छ कहते हैं। गच्छ मो न हो तो शेष संघ योग्य है। सप्त पुरुषोंके अन्त्रयको संघ कहते हैं ।। १६॥ . .. .. . ..