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________________ 'श्री विहरमान विशति जिन गीतम् २७ ते भणी स्यु कही दाखवजी, जुगत जाणउ करउ तेह ॥२॥ भगत तुझ अवर द्वारांतरइजी, आस पिण पूजतां जाइ । आप विमासी नइ जोइज्यो जी, लाज ए केहनइ थाइ ।।ने० पारथिया पहड़ई नही जी, उत्तम एह आचार । निपट उवेख मूकइ नही जी, नेट कांइ करइ सार ॥४॥ने। आपण ऊपरि जे रहइ जी, अवर करइ नही सामि । ते 'जिनराज' निवाजीयइ जी, आपणउ अवसर पामि ॥शाने० (१६) श्री ईश्वर जिन गीतम ढाल-पास जिरणद जुहारिइय ईसर जिन वइरागियउ, रागी थी अधिक दिवाजइ रे। जिण परि प्रभु वखाणियइ, ते परि सगली तुझ छाजइ रे ।१।ई० तू क्रोधी क्रोधइ चढयउ, अरियणना कंद नकंदइ रे। अभिमानी सिर सेहरउ, चालइ आपणइ छदइ रे ॥२॥ई० मायावी माया रची, सहु को ना तू मन वंचइ रे । तू लोभी गुण मेलवी, लाख गाने ले संचई रे ।।३।।ई०।। सेवक पिण पोतइ तणा, तु जोवइ नजरि न देई रे। देई कान न साभलइ, किणहीनइ वात कदेई रे ॥४॥ई०॥ अलख अगोचर तू जयउ, किणही तुझ अत न पायउ रे । भगतवछल जगराजीयउ, जीतउ पिण 'जिनराज' कहायउ रे ॥शाई०॥ (१७) श्री वीरसेन जिन गीतम् ढाल-वहिली हो वलण करेज्यो इण दिसइ. मुझनइ हो दरसण न्याय नतू दीयइ हो, नवलो छइ मुझरीति ।
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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