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श्री विहरमान विंशति जिन गीतम्
वीरा चांदला | तु जाइस तिरण देस रे । जुगमंधर भरणी, कहिजे मुझ संदेस रे || २ || वी० ॥ तू अंतरजामी अछइ, जारणइ मन नी वात | तउ पिरण आस न पूरवइ, ए सी तुम्हची धात रे || ३ || वी० ॥ मई तउ करिवउ मो दिसा, तुम्ह सु निवड़ सनेह |
फल प्रापति सारू हुस्यइ, पिरण मत दाखउ छेह रे ॥४॥ वी० ॥ तेहनइ कहि समझाइयइ, जे हुवइ आप अयारण ।
पिरण 'जिनराज' समर अछइ, अवर न एवड़ जाग रे | ५|वी० ( ३ ) श्री बाहु जिन गीतम्
ढाल - करहइनी मन मधुकर मोही म्हयउ० वाह समापर बाहु जी, जिम मो मन थिर थाइ रे ।
जिरण तिरण बांह विलंवतां, मान महातम जाइ रे ॥ १ ॥ बां० ॥ सबला नइ सराइ थियइ, गंजी न सकइ कोइ रे । पाधरसी पाछल पडयां, कारिज सिद्धि न होइ रे ||२||बा० ॥ तुम सरिखउ थाय वलू, करइ पखउ जगनाह रे ।
तउ नार सुपनंतरइ, हु केहनी परवाह रे ॥ ३ ॥ बा० ॥ सरणागत वच्छल तुम्हे, हु सरणागत सामिरे ।
जे मन मानइ ते करउ, स्युं कहीयइ ले नाम रे ॥३॥ बा० ॥ जउ सेवक करि जारणस्यउ, तउ इतलइ ही मुझ राज रे । मीटइ हो मोटां तरणी, जीवीजइ 'जिनराज' रे ||५|| बा० ॥ (४) श्री सुबाहु जिन गीतम्
ढाल - कर जोडो आागल रही ए जाति
• सामि सुबाहु जिणिद नउ, जइयइ मुख निरखेसन रे ।
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