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श्री विहरमान विशति जिन गीतम्
इम 'जिनराज' विचारतां, आव्यउ भाव प्रधान। तिण तू परतिख मेलव्यउ, हिव करि आप समान रे॥५॥च०
( २५ ) कलश
राग-धन्याश्री सुभ वहिनी पिउडो परदेशी इण परि भाव भगति मन आणी, सुध समकित सहिनाणी जी। वर्तमान चउवीसी जाणी, श्री 'जिनराज' वखाणी जी॥११॥इ० जउ मूरति नयगे निरखीजई, जउ हाथे पूजीजई जी। जउ रसनाइ गुण गाइजइ, नर भव लाहउ लीजइ जी ॥२॥ई० युगवर 'जिनसिंहसरि' सवाई, 'खरतर' गरु वरदाई जी। पामइ जिनवर ना गुण गाई, अविचल राज सदाई जी ॥३॥इ० पहिली परति लिखाई साची, वारू गुरुमुखि वाची जी। समझी अरथ विशेषइ राची,ढाल कहेज्यो जाची जी।।४॥३०॥ केई गुरु मुख ढाल कहावउ, केई भावना भावउ जी। के 'जिनराज' तणा गुण गावउ,
चढती दउलति पावउजी ॥५॥३०॥
॥ इति श्री चउवीस जिन गीतम् ॥