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जिनराजसूरि-कृति कुसुमांजलि
भोलडो भगति करिवा भणो जी, आविस्यइ एकण वार । वार बीजी सहि नाविस्यड जी, ताहरो भगत तुझ दुवाराशदा० तउ पिण दुवार 'जिनराज' नइ जी, ओलगइ वड वडा भूप । अलख अगोचर तु सदा जी, सकल तू अकल सरूप ॥५॥द० (२०) मुनिसुव्रत जिन गीतम्
राग-सोरठ कडखानी अधिका ताहरा हु ता अपराधी, ते पिण तइ हिज तारया। अम्ह सरिखा सेवक अलवेसर, वेगुनही वीसारया ॥१॥अ०।। आय दीयई बाथां भरि एका, अमरा पुर घई एका। मुझ वेला मुहंडउ मचकोड़ी, बइठउ तारक ते का ।।२।अ० सहु कोनई जउ राखइ सरिखा, पडइ न को पचतावइ । जगगुरु ही जोवइ बिहुनजरे, तउ बलियउ दुख आवई ॥३॥अ० तारया किता किता तू तारिस, तारइ छइ पिण तू ही। इण वेला जउतू अलसाणउ, बइसि रहु लउ हूँ ही ॥४॥०॥ भोल भगत दीयइ ओलभा, साहिव सहिता आया। मुनिसुव्रत 'जिनराज' मनाई, राखि लीयई छत्र छाया ।शम०
(२१) श्री नमिनाथ जिने गीतम्
सई मुख हुँ तुम्हनइ न मिली सक्यउ, तउँ सी सेवा थाइ। दूर थकां कीधी न वरइ पडइ, खबरि नं धइ को जाई ।स: प्रवचन वचन सुधारस वरसतउ, आगलि परषद- बार। समवसरण नयणे निरख्यंउ नही, सजल जलद अरणहार ।रास