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________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि अकल पुरुप जिणविध अटकलीयउ, सहज सरूपी तिण विध फलीयउ॥आ० ॥३॥ झाली हाय न को तु तारड, फेरइ न कोइ न तू संसारइ। तू किम भाव कुभाव विचारइ, फलइ मसाकति सारा सारइआ०॥४॥ एक नजरि 'सहु को परि राखड, कुण बीजउ परमेसर पाखइ । श्री 'जिनराज' जिनागम साखड, सुजस सुपास तणउ इम आखइ॥५॥ आ०॥ (८) श्री चंद्रप्रभ गीतम् रमउ रे सुरगी गेहरी-ए जाति श्री चद्रप्रभु पाहुणउ रे, किम आवइ घरवार रे । जेहनइ प्रभु छोपइ नही रे, पाखलि ते परवार रे॥श्री॥१॥ पाणी वल पिण वेगलउ रे, न रहइ काम अछेप रे।। माया माछणि काढिवा रे, मइन कीयउ आखेप रे ॥श्री०॥२ लोभ अनीतउ वागरी रे , नांखइ पगि पगि जाल रे । आठ पहर ऊभउ करइ रे , चउकी क्रोध चडाल रे ॥श्री०॥३ विसन वनेचर बारणइ रे, ऊभा करइ पुकार रे । माछीगर अभिमान चउ रे, न टलइ पग पइसार रे ॥श्री०॥४ समिरण श्री 'जिनराज' नउ रे , आवइ आगेवाण रे। तउ पापी पासउ लीयइ रे, वछित चढइ प्रमाण रे ॥श्री०॥५॥ * सोइज
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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