________________
इसीलिए वह विशिष्ट है । स्थूल रूपसे कविका कार्य विषय दो प्रकार का रहा है
(१) गुरणगाथात्मक या स्तुतिपरक
(२) प्राध्यात्मिक या उपदेशपरक
[१] गुणगाथात्मक या स्तुतिपरक:
अपने से महान मौर श्रद्धय पुरुषो का गुणगान गाना, उनके लोकोपकारक कार्यों का स्मरण स्तवन करना भारतीय धर्म और काव्य का मुख्य आधार रहा है । इससे मन पवित्र होता है, मानसिक शान्ति मिलती है और नयी सजीवनी शक्ति का अनुभव होने लगता है । जिनराज सूरि ने महान श्रात्माओ के प्रतिरिक्त महान आत्माओ से सम्बन्ध रखने वाले तीर्थादि स्थानो का भी माहात्य प्रतिपादित किया है ।
V
महान श्रात्मा मे यदि कवि का ध्यान तीर्थङ्करों, विरहमानों, सतियो और अन्य तेजोपु ज व्यक्तियो की ओर गया है तो तीर्थादि स्थानो मे उसे शत्रुञ्जय ( विमलाचल), श्रावू तथा अन्य मन्दिरादि विशेष प्रिय रहे हैं। रामायण की कथा भी उससे
छूती नही रही । संवादात्मक गेय शैली मे जो पद लिखे गये हैं वडे मार्मिक श्रोर चोट करने वाले हैं । स्वप्न पद्धति के द्वारा कवि ने मदोदरी से जो भावी आशंका का वतावरण प्रस्तुत कराया है वह देखिए
श्राज पीउ सुपनइ खरी डराई ।
जलधि उलंचि कटक लका गढ़, घेरयउ परी लराई ॥ १ श्र० ॥ लुटि त्रिकूट हरम सव लूटी, भूटा गढ़ की खाई । लपक लगूर कंगुर वइठे फेरइ राम दुहाई ||२||०|| जउ दस सीस वीस भुज चाहइ, तर तजि नारि पराई । राज वदल हुणहार न टरिहर, कोरि करउ चतुराई ||३० (पृ. ४) श्री वर्तमान जिन चतुर्विंशतिका मे २४ तीर्थङ्करो का गुणानु
(7)