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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि
भवसायर तरवा भरणी, नित नित नमइ नरिंद ॥२॥ सुरगो वारणी सहगुरु तणी, ए संसार असार । इम जारणी मन आपराइ, आणि वइराग अपार ॥ ॥ विनयवत इम वीनवइ, सजम लेपु सार । मुझ अनुमति द्यउ मातजी. पामु जिम भव पार ॥शा मात कहइ सुरिण मानसिंघ, बारह मास उदार । सुख भोगवि ससार ना, विपम सावु व्यापार ॥५॥
ढाल-सिंधू १ मल्हार २ चांपलदे चित चोखइ इम कहइ रे, श्रावण मइ सुख स्वाद । बीजलड़ी चमका चिहुँ दिति करइ रे
केकि करइ कल नाद ||चां०॥६॥ दादुर वादुर गहकइ गड़गडइ रे. मानु मदन नीसारण । पहिर्या पच प्रकार वसन धरा रे, खेलइ चतुर सुजाण ॥चां॥७ भला भला भाँदु मइ भोगवइ रे, भोगी भामिन स ग । कीन ना मइ कामी क्रीडा करइ रे, रस लुवधा अर र ग ।।
चांसे सहिवा सही वावीस परीसहा रे, धरम घ्यान चित चंग । गिरिवर गहिर गुफा मइ गुण निला रे,
गोपवि अंग उपंग ॥चांपा भधिक पाणंद पासोज मइ स पजइ वाजइ सोतल वाय । दीपतउ गयणगरा च द्रमा रे. भोगीजन मन भाय |चांग॥१०॥ पकज परिमल पसरइ चिहुँ पखे रे, नवलउ जागइ नेह । विरहरिण वनिता नर विरहाकुलो रे दाझइ अहनिसि.देह।।चां०११॥ धान नवा कातिक मइ नीपजइ रे, निरमल तिम वलि नीर । दीवाली परवइ दिन रली रे, चतुर वरणावइ चीर ॥चां०॥१२॥ पाहार निरंतर नीरस आविसई रे, उन्हउ उदक असार । दृषिण दूषित ते पिण ल्यइ नही रे, किम करिस सुकुमार ॥चां०१३