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________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई २१५ घर हती ते निकलइ, धरतउ मन मइ बीह । मृगलउ वन मइ नवि रहइ, देखी सवलउ सीह ॥४॥ [सर्व गाथा ५२६] ढाल २६-अन तवीरज मइ ताहरउ ए जाति कृष्ण नर सर प्रहसमइx पहमण लागउ जाम । हूंगहार न टल इ किमइ, सोमिल मिलियउ ताम ॥१॥ हरि देखी भय ऊपनउ, प्रारण रहित ते थाय। आउखो तूटण तरणउ, भय पिण कारण न्याय ॥२॥ ध्रसकइ ते घरणी ढल्यउ, देखी कृष्ण नरस । भाषइ करम चडालइ, पापी बांभरण वेस ||३||कृ० सहु को लोको साभलउ, सोमिल बांभरण एह । एणइ मुझ बंधव भरणी, दहि कीघउ निरदेह ॥४॥कृ०॥ ए अपत्थिय पत्थियउ, इण नइ हिव सी मारि । इणि भवि ना इणि भविए+, विरुपा करम विकार ||शा रांडूं सेती बांधिनइ, पापी ना पग हाथ । नगरि परि सरि फेरवउ, जपइ इम यदुनाथ १६||कृ०॥ छेदी दस दिसि वलि करउ, ए, छ: प्रम्हची प्राण । सेवक ते तिमही: करइ, प्रभु नउ वचन प्रमाण ॥७॥० जल सेती छाटी करी, पवित्र करइ ते ताम । विलखउ विरहइ वधु नइ, हरि भावइ निज धाम कृ०॥ सोकातुर धरणी ढली, मात सुरणी ए वति । वात तणइ योगइ पड़इ, जिम तरुवर नो पात ॥६॥ श्री जिनशासन अगि जयो-ऐ देशी xनगर में +पच्या वायु हि तिमहिन
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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