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श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई
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इम हरि अनुक्रम चालतउ रे, नेमि जिणेसर पासइ रे । आवी परदक्षिरण करी र, वदइ मन उल्लासइ रे॥१०॥म०॥ बधव किम दीसइ नही रे, हरि मना माहि विमासइ रे । नजरि न आवइ माहरइ रे, दीठउ पासइ पासइ र ॥१शाम०॥ प्रभु नइ पूछइ माहरउ र, बधव किम तुम्ह पासइ रे। नवि दीसइ जिन इम सुरगी रे, साची वाणी भासइ र ॥१शाम०॥
[सव गाथा ५०६]
॥ दूहा ॥ कृष्ण सुगउ तुम्ह बांधवइ, भली बधारी लाज । विषम परीसह तिम सहथउ, सारथा आतम काज ॥१॥ काल्हे अम्हनइ पूछिनइ, महाकाल समसान । काउसग्ग जाई करइ, घरतउ धरमनो ध्यान ||२|| एक पुरुष तिहा प्रावियउ, तिणनई अधिकी रीस । मुनि नइ देखी ऊपनी, जाण्यउ बालु सीस ॥३॥ पालि करी माटी तरणी, ऊपरि ठवि अगार । अधिकी वेदन तिणि करी, रिषि पाम्यउ भव पार ॥४॥ कारिज साध्यउ मापरणउ, मन मत करिज्यो* खेद । कीघउ थोडइ काल मई, आ5 करम नउ छेद ॥१॥
[सर्व गाथा ५११]
ढाल-२८ काल अन तानंत-पहनी प्रभु जपी ए वात, सांभलि नइ हरि हो सोक करइ घणउ । पाणी बलि न खमाइ, कठिन विरह दुख हो भाई तुझ तणउ ॥१॥ मिलिस्यइ वार बिच्यारि, बंधव मुझ नइ हो व्रत माहे छतउ । एह मनोरथ साच, प्राज घड़ी लगि मन माहे हुतउ ॥२॥
परिज्यो