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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि
धीर वीर जारणी करी रे, जपइ इम जग नाहो रे । जिम सुख देवानुप्रिया रे, पूरवि मन उच्छाहो रे ॥४॥मु०॥ सांलि मन रखित थयउ रै, वद जिनवर पाय । सीह अनइ बलि* पावरयउ रे, साहस विमरण उ थायो रे ॥५मु० सहस्रांव वन उद्यान थी रे, नीकलि साहस वत । महाकाल समसान मइ रे, सावइ ते एकतो रे ।मु०॥ साहस न रहइ देखता रे, भून झल झलकइ झाल। मार मार मुख थी कह रे, व्यतर अति विकरालो ॥७॥मु०॥ भीपण वचन सिवा तणा रे, श्रवण कटक न खमाइ । मुख पिसाच फाडइ इमा रे, गिरि पिण माँहि समायो रे ||८|मु०॥ डोलइ डाइण साइणी रे, मुख धरती पल खड। तीखी हाथइ कातरी रे, तुरत करइ सत-खडो रे ॥३॥मु०॥ लांवा ताल तणी परइ रे, दीसइ ताल पिसाच । अ तर भेद न को लखई रे ए छड झूठ कि साचो रे ॥१०॥मु०॥ धीरज क्णि नउ नवि रहइ रे, राति समइ तिरण ठाम। ऐ ऐ साहस साधु नउ रे, वलिहारी जसु नामो रे ॥११:।मु०॥ वडी नीति लघु नीति ना रे, रिषिवर डिल ठाम । पडिलेही काउसग करइ रे, धरतउ प्रभु गुण ग्रामो रे ॥१२।।मु०॥ प्रतिमा एक रयण तणी रे, प्रादरि त्रिकरण सुद्ध । कर्म शत्र जीपरण भरणी रे. जाणे मांडयउ जुद्धो रे ॥१३॥मु०॥
[सर्व गाथा ४६०]
॥ दूहा ॥ द्वारवती नगरि थको, सोमिल नामइ विप्र । इण अवसरि ते नीक नइ, खति धरी मनि खिप ॥१॥
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*मने जिम