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श्री गजसुकुमाल महामुनि चौपई
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न ग्रहे वस्तु प्रदत्त, इण भाव लोक हणइ री। परभव दारूण दुक्ख, जिरणवर एम भरणइ री ।।२२॥ व्रत ए भाव विसुद्ध, श्रीजउ पालि खरउ री। सोहागिरिण सिव नारि, करणी एणि वरउ री ॥२३॥ परिग्रह अनरथ मूल, तेम कषाय तजउ री। स यम सतर प्रकार, साचइ भाव भजउ री ॥२४॥
[सर्व गाथा ४४३]
॥ दूहा ।। सोखोमणि इम सुत भरणी, देई विविध प्रकार । दुख करती पाछी वलइ, माता ले परिवार ॥१॥ जल धरनी परि हरि नयण, वरसइ आँसू धार । पीत वसन जे पहिरिया. ते दामिनि अनुहार । २॥ वाटइ पाटइ तिम हियउ, बलता न वहइ पाय । हरि जारगइ सूनउ हियउ, जग रिछडतइ भाय ॥३॥ प्रभु पासइ व्रतादरो, हिब श्री गजसुकमाल । ग्रहणा नइ प्रासेवना, सीख ग्रहइ ततकाल ||४||
[सर्व गाथा ४४७
दाल-२४ सामाचारी जूजूई-पहनी पासइ जिनवर नेमि नइ रे, मुखि* भासइ एम । तिण हिज दिवसइ मन रसइ रे, धरि उपसम रस प्रेमोरे ॥१॥ मुनिवर वदीयइ, गुण निधि गजसुकमालो रे। चरण करण धरू, जीव दया प्रतिपालो रे ॥२।।मु०॥ मुझ ऊपरि करूणाकरी रे, सामी द्यउ आदेस । प्रतिमा एक रयण तणी रे, विधि खप करीय बिसेसोरे ॥३।मु०
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