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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि हरि कोटंबिक तेडिनइ रे, भाखड एम विचार रे ॥१०॥०॥ गजसुकमाल तणउ कराँ रे, राज तरणउ अभिषेक रे। सुचि तीरथ जल पाणिवउ* रे, वलि प्रोषधी अनेक रे||११|ह० स्नान करावो शुचि जलइ रै, सुभ प्रोपघि सयोग रे। नगर माँहि उच्छत्र धरणा रे, मुदित हुआ सब लोग रे ॥१२॥ह०॥ सधव वधु गुण गावती रे, विचि विचि द्यइ पासीस रे। जइतवार तू जगत मइ रे, हुइजे विसवावीस रे ॥१३॥हा॥ हार आवी लटकउ करइ रे, सोल सहस राजान रे। मुखि जपइ प्रभु ताहरी रे, ऑरण धरा असमान रे ॥१४॥हा॥ छत्र अनइ चामर भला रे, नरवर ना सहिनारण रे। गज सुकमाल तराइ सिरइ रे, सोहइ जगि सिर आरग रे ।।१५। ह. राज ग्रह्यउ पिण अति घरगउ रे, चारित ऊपरि चाह रे। लोक विचारे एहने रे, या मति आई काह रे ॥१६॥ह. एक दिवस लगि आदरयउ रे, तुझ प्रादेमइ राज रे । हिव मुझ अनुमति दीजियइ रे मररू प्रातम काज रे ॥१७॥०॥ वधव वचन इसा सुगी रे भजइ हरि मुरिण भाइ रे।। कहता जीभ वहइ नही रे, करि ज्यु अावइ दाइ रे ॥१८॥ह०|| नयण थकी आसू झरइ रे, धीरिज न धरयउ जाय रे। सुहुको मोह तणइ वमड रे, प्राणी परवसि थाय रे ॥
१०॥ राज तणउ उच्छव कीयउ रे, व्रत उच्छव नीवार रे। अवसर चूकिजइ नही रे, हरि इम करइ विचार रे ॥२०॥०॥ नगर सह सिणगारियउ रे, घरि घरि मगलचार रे । गीत विनोद विलास सू रे, नाटक ना दोकार रे!।२शाहा!
[सर्व गाथा ४१४ ]
॥ दूहा ॥ सिविका प्रारणावी कहइ, हरि सुरिणX गज सुकमाल ।
इरिण चढि भाई ताहरी रे, फलि मनोरथ मालि ॥१॥ प्रणिन साभलि