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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि
दिन माहे देखुसउवार । तउ हू सफल गिणु अवतार । तू मुझ जीवन प्राण प्राधार | तुझ पाखइ सूनउ स सार ||६| सीयाला नी निसि स भरइ । तउ इवडी कचमूल न विकरइ। वारथउ न रहइ किरणही परइ । हरि नइ कहिस रहिस तू तरइ ।।१०।। कीधी तुझ ऊपरि वारणइ । मुह बाहिर हासइ कारणइ । वात म काढिस घर वारणइ । सुणता चित्त न रहइ धारणा ॥११ न कहइ फेरि वचन जउ किसा। तइ अनिवड जाणी तो दिसा । दीसउ वड वइरागी जिसा । ए वइराग कहउ किरण मिसा ।।१२।।
[सर्व गाथा ३६१] ॥ दूहा ॥ हरि जाण्यउ बंधव ग्रहइ, व्रत तिरण प्रावी पास । ऊभउ तिरण अवसर कुमर, इसी करइ अरदास ॥१॥ भाई आगलि भाखता, हीण परिणइ सी लाज । हरि सुप्रसन हूयइ सहू, सीझइ वछित काज ॥२॥
[सर्व गाथा ३६३ ]
ढाल-२१ सुणि मिरणावती-पहनी सुरिण मुझ बंधव ए अरदासा रे,
व्रतनी मनसा पूरवि* आसा रे ॥१॥सु०॥ हरखित होई मुझ अनुमति प्रापउ रे,
थिर मन करि नइ पूठी थापउ रे ॥२०॥ तुझ परसादइ बहु सुख मई माण्या रे,
इतला काल न जाता जाण्या रे ॥३॥सु०॥ अनमी कांधा शत्र नमाया रे,
पांचे इ द्रिय विषय रमाया रे ॥४॥सु०।।
*पूरण