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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि
मति करिज्यो परमाद नी, वात तणउ प्रतिबंध ॥२॥
[सर्व गाथा २४६]
ढाल-१५ मृगावती राजा मनि मानी * ~ पहनी
राग-केदारा गोडी तीन वरण- साधतउ भली परि,सुखम+ गमावइ कालो रे । मात पिता भाई ने वल्लभ, गुगवत गजसुकमालो रे ११॥ इण अवसरि श्री नेमी जिरोसर, समवसरया सुखकारो रे। चउनाणी पणनाणी श्र तघर, साथइ बहु परिवारो रे ॥२॥इ. चउविह मुर मिलि समवसरण थिति विरचइ विविह प्रकारो रे। रजत हेम वर रयरण तणा वलि मडै तीन प्रकार रे ॥३॥इ०॥ जानु प्रमारण कुसुम ऊधइ- मुख, वरषइ सुर घरि भावो रे । ऊपरि फिरतां घिरता नवि दुख, पामइ जिनवर परभावो रे ॥४३० गगा नीर तरणी परि निरमल, चामर वीजइ देवो रे। तीन छत्र सिर ऊपरि सोहइ, सुरवर सारइ सेवो रे ॥शाइ०॥ भामलड प्रभु पूठइ सोहइ, वूठइ घन जिम सूरो रे। प्रमुनी कति ठवइ तिण माहे, अधिकउ तेज पडूरो रे ॥६||इ०॥ हेम तणउ सिंहासन सोहइ, पादपीठ सजोडी रे। प्रण हतइ पिरण पासइ भासई, बइठी सुरनी कोडि रे ॥७॥इ०॥ मधुर ध्वनि (सुर) दु दुभि तिहा वाजइ,लहकइ वृक्ष अंसोको रे। अतिसय अधिका देखी प्रभुना, अचरिज पामइ लोको रे॥॥॥ वनपाल दीधी आइ वधाई, समवसरथा जिनराजो रे। कृष्ण विचारइ निज मन माहे, सफल दीह मुझ पाजो रे ||इ० प्रीतिदान प्रापी तिरगनइ वह. सुभ वचने संतोषी रे। नगर लोक नइ भेला करिवा, इसी करइ उदघोषी रे ॥१०॥इ० पातकहर आया नेमीसर, तिण हरि वदरण जायो रे। "हम धन्नो घण ने परचा -एहनी x वरग + सुखै ऊचे मधुकर