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श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई
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दूषण भूषण* वइतालीसे । जे xसवि जाणइ विसवावीसे । ते पाहार भमर जिम ग्रहता। श्री वासुदेव तणइ घरि पहुता ॥४॥ देखि सरूप कीया देवकीयइ। दीठा बे मुनिवर देवकीयइ । सात आठ पग साम्ही जाई। करि प्रणाम देवकनी जाई ॥५॥ मुझ घर आगरण पावन कीघउ । जगम + सुरतरु जो पग दीघउ । पेखी पात्र चढी सुभ भावइ । थाल भरी मादक विहरावइ ।।६।। पडिलाभो मुख साम्हउ जोवइ । सारउ तनु रोम चित होवइ। जोता तिम लोचन थभारणा। पाछा ले न सकइ लोभारणा ॥७॥ चचल चित ते पिरण अटकारगउ । नेह-नवल तिरण क्यु न कहाणउ लाग गई इणि परिका ताली। जॉरो चित्र लिखित पचाली ॥८॥ वलि बीजउ सघाड उ आवइ । पिण अतर तिल तुस न जणावइ । प्रागलि भोजन परि पाउधारउ । महिर करी मुझनइ निस्तारउ ।। इण घरि देवानी मति जागइ। तउ किरणही बातइ दोष न लगाइ। धरि विमरणो उलट निज अंगइ । पडिलाभइ मोदक मन रगइ ॥१०॥ पाणी खलि पिणन पडयउ पाडउ । आव्य त्रीजउ पिण सघाडउ। दीठा तिणी एकणि अनुहारइ । स्यु फिरि आव्या त्रीजी वारइ ॥११॥ पाजूणउ दिन पडिस्यइ लेखइ। पडिलाभइ मोदक सुविसेषइ । परभव नइ जे स वल संचइ । तेत उ देतउ हाथ न खंचइ ॥१२॥
सर्व गाथा ४१ ॥ दहा ।। करइ तिसो खप विहरता, गिण गिरण टालइ दोष । पडइ न चलता पांतरउ, लाघउ मारग धोख ॥१॥
*दूषित x नवि +तीरथ बलि
न चलि
परि देवीनी