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शलिभद्र धन्ना चौपाई
तिण कुल साधु न पैसे पातरे रे. जिण घरि जातां हवे अप्रीत रे । एम विमासी नै पाछा वल्या रे, एहिज सुविहित मुनिनी रीत रे ॥८बे. हुँतो मासखमण नो पारणो रे, पिण मन डोलाव्यो न लिगार रे। अधिकेरो तप अगलाघां हुवै रे लाथै देही ने आधार रे॥९०॥ वलतां मारग महीयारी मिली रे, माथा ऊपरि गोरस माट रे। थभारणी पग भ र न सके खिसी रे,
देखि सालिकमर नो घाट रे ॥१०॥०॥ लोचन विकस्या तन मन उलस्यारे, रोमांचित थई देह रे । झरवा लागो खीर पयोहरे, रे, जाग्यो पूरब भवनो नेह रे ॥११बे०॥ बहिरावै गोरस भावे चढी रे, वहिरी ने चिते सुविनीत र । कनकाचल चाले चालव्यो र, न चले वीर वचन सुविदीत रे ॥१२बे जगगुरु भासै स सो टालिवा रे, ए पिण पूरव भवनी मात रे। विरहण जातॉ श्राज कही हुँती रे,
मै पिण तुम्ह ने नीरती बात रे ॥१३॥०॥ स गम ने भव हँती मांडि नै रे, सगली बात कही जिनराज रे । सहु को मन अचरिज ऊपनो रे, करम तरणा ए काज रे ॥१४॥वे०॥
॥ दूहा ॥ श्री जिनवर मुख साँभली. पूरब भव विरतत । सालि विचारै करम गति, इरण परि साधु महत ॥१॥ नाछरुवा चारावतो, हु पाछलि दस वीस । इणि भवि किरीयायो कीयो, श्रोणिक मगधाधीश ॥२॥ * पाछलि मनसा खीर नी, पूरी, हुती नीठ। निरमाइल घाल्यो कनक, इणि भवि सगले दीठ ॥३॥ भव पहिलकै पहिरतो, माँगी पर नी खोल । इण भव बहू ए पग लूही, नाख्या कबल सोल ।।४।।