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जिनराज सूरि-कृति-कुसुमांजलि
हुती भामरिण प्रेम विलूघी, ते पिण सुरिग प्रतिबोधी रे । वाली वले सदा पडसूधी, पिण नवल सिल सूची रे ॥११.३० पूरबली परिण प्रीति न तोडु, नेह नवल हिव जोडुरे । हूँ साहिब को सग न छोड़, तिम आपो नवि छोडु रे॥१२॥इ० एक मतो कीधो मन रग, व्रत लीयो प्रभु सगे रे । श्री जिनराज वचन आसगे, पाले प्रीति अभगे रे ॥१३४०
॥हा॥ घण थिर करी श्राव्यो वही, सालिकुमर ने पासि। हर जिम बाडूकी कहै, इण परि वचन विलास ॥१॥ हिव लालच करता थका, सवल पर्ड छै चूक । करै सूर पोरस चढयं', इकरिग धाव वि टूक ॥रा प्रेम मीत दल , मोडिवा, कायर म करि संकाण । हुँ पालि पूठी रुखो, तू हुइ आगेवाण ॥३३ बोलाव्यो न रहै कदे. केहर नावे घाय । वापूकारया जे रहै, किम सूर कहाय ॥४॥ वयणे मन विमगो थयो, बाध्यो मन उछरंग ! वार न लागे वेसता, पासे ऊपरि रंग ॥५॥ पहिली पण अधिको हुतो, संजम ऊपरि प्रेम । वहनेवी वचने थयो, हरि पारियो म ॥६॥ खरी खबरि प्रावी तिस, समवसरथा जिनराज । सालि कहै हिव प्रापरणी, पास फलेसी आज ॥६॥
', ढाल-२२ नथ गई मेरी नथ गई ए जाति
प्रास फली मेरी पास फली पास फली पाउधारया वीर । । प्रागलि गौतम स्वाम बजोर ॥
१०॥ सजम लेतां बांधी भीर, हिव पामिस भव जल निधि तीर मे० , व्रत लेवा नै जिनवर हाथ, इक घेवर ने बूरा साथि ॥३॥मे०