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जिनराज सूरि-कृति-कुसुमांजलि
राजा धरि आयो रे, मन थयो सवायो रे,
भरी थाल बघायो मोती माणके रे, सोवन वारीजे रे, पाटवर दीजै रे,
तिम अघा तेडीजे, साथि हुता जिके रे ॥६॥ पहिली भूमि जोइ रे, हरख्या सहु कोइ रे,
नर भवरण न होइ स्यु सुहिणो अछे रे। वीजी भूमि आवे रे, अचरिज संव पाव रे,
___ मनभावै, सुर लोक थयो इण थी पछे रे ॥७॥ धन माल झालेखै रे, चिङ पास पेखें रे,
सुर भवन विशेष हु स्यो अवतरयो रे। किरणही भोलायो रे, मैं भेद न पायो रे,
अलिकापुरी प्रायो, इम संसय घरथो रे | हु श्रेणिक नामइ रे, प्रायो कणि ठामइ रे,
___ इम अचरिज पामै समझि न को पडे रे। सिर धूणी सोचइ रे, मनस्यु आलोचे रे,
पगभरी सकोचे, चलतो लड़थड़े रे ॥
भद्रा प्रावी ने कहइ, स्यु जौवो छो एह । दासी दास इहां रहै, उपर जोवी गेह ॥१॥ तीजी भोमी चढया जिस, नयरा न सके जोड़ि। घर अंगण जिम झलहले, जाणे उगा सूर्य कोडि ॥२॥ चढता चउथी भूमिका, थभारा सवि तेह । मानवगति दीस नही, छै देवगति एह ॥३॥ सिंहासन प्रासन ठवी, भद्रा भासै अाम । तेड़ी ल्यावु नान्हडौ, राज करो विश्राम ||४||
ढाल ८ मीजवासै उपवासै गले एहनी जाति वेग पधारो हो महल थी, वार म लावो आज । घर आगण आव्यो अछ, श्री श्रोणिक महाराज ॥१॥वे०