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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि
जीहो अउले खाले वहै, जीहो कस्तुरी घनसार । जीहो आठ पहर लगि सामठा, जोहो नाटिक ना दीकार ||शाच. जीहो सालिकुमर सुख भोगवे, दोगदुक सुर जेम। जीहो भामणि स्यु भी भीनो रहै,जीहो दिन दिन दिन वध प्रेम।१२
॥ दूहा ॥ इण अवसर केइक भला, परदेसी मिल चार । रतन कंबल वेचण भगी, फिरय नगर मझार |शा ताप सीत भेदै नही, अति सु दर सुकुमाल । अग्नि झाल मे धोवता, मल छाडे ततकाल ॥२॥ जे पहिरस्य सो जागस्यै, अवर न जाणं भेव । परदेसी ऊभा कहै, रतन कवल को लेव ॥३|| छयल पूरष लेवा भरणी, फिरै वीच दलाल । पिरण साटी बाजे नहीं, कहै अमामों मोल ॥४॥ राजगृही नगरी भम्या, ऊंच नीच श्रावास। कवल कोई न सग्रहै, ते सहु थया उदास |
ढाल-५ सिन्धुनी जाति इण पुर कंवल कोइ न लेसी, फिर चाल्या पाछा परदेसी । साल महल पास ते पावै, दासी मुखि भद्रा तेडावै ॥१॥ व्यापारी दीसौ छौ वीरा, तो किरण कारण थया अधीरा।। परदेसी श्रावै व्यापार, लाभ पखै अण वेच्या सारै ॥२॥ वस्तु अम्हारी लेवा सारू, मिल्यो महाजन वारू वारू । मोल सुगीने मुह मचकोड़े, वलतो साटो कोइ न जोडे ॥३॥ फिर पाछा वीरा मत जावी, मोल कही ने वस्तु दिखावो। सवा लाख धन खोले घाले, एह सोल कंवल सो झालं ॥४॥ वहवर एक निजर में दीठी, सी दिस खारी सी दिस मीठी। कंवल सोल किम परचावु, तिरण ए अरघो अरघ करावु ॥शा