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________________ १०४ जिनराजपूरि कृति-कुसुमांजलि श्री 'जिनराज' कोऊ कहा, काकउ सहज मिटावइ ।।३।।क०।। __ परमार्थ अक्षर राग - धन्यासी तुम्ह पइ हइ ग्यानी कउ दावउ। पढि पढि ग्रन्थ कहा तत पायउ, सो मोकु समझावउ॥तु०२॥ अच्छर बहुत सुण्या होइ झगरउ, सो जन मोइ सुणावउ । एक अच्छर मइ हइ परमारथ, अपढयउ सोइ पढावउ ॥तु०२ साथ रहत हइ नाथ निरजण, रि अंजण दिखलावउ । श्री जिनराज' तिहारउ चेरउ, आपो आप मिलावउ ।।तु०३ जकड़ी गीत, वहां की खवर राग- सामेरी मेरे मोहन अव कुण पुरी वसाई। निसि दिन मग जोवत सु सनेही, पतिआं क्यु न पठाई ॥१॥म०॥ विछुरण की वरीया चितवत हो, आवत नयण भराई । हइ कोऊ अइसइ हितू हमारउ, जो ल्यावइ बहराई ॥२॥मे० किण ही खबर न दइ उहा की, अब हइ कउण सखाई। श्री 'जिनराज' वदत इक अपणी, आवत साथ कमाई ॥३मे० __ परदेशी प्रीति राग-पासा कबहन करि री माई मीत विदेसी। जउ पइ कोरि जतन करि राखु, तउ भी अंत चलेसी ॥१॥ भमत भमत आयउ अव या धरि, दिन दस वीस रहेसी।
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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