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जिनराजसूरि कृति-कुसुमांजलि
आत्म बोध तेरा कौन ?
राग - केदारउ जीउ रे चाल्यउ जात जहान । घोख मारग परयो निवहइ, बाल विरध युवान ॥१॥ कउण परि भडार भरि हइ,अंत वासउ रान । छूटि इक अपणी कमाई, सग न आवइ आन ॥२॥ ग्रन्थ पढि पढि जनम वउरयउ, मिटयउ तउ न अज्ञान । तू न का कउ न 'कउन तेरउ', समझि 'जिनराजान' ॥३॥
स्पर्धा कहा कोउ होर करउ काहू की। पीतर कनक होवत कबहू, देख्यउ निसि दिन फूकी ॥१॥ केकेड दसरथ कइ आगइ. वहत भाति करि ककी। राजा 'राम' भयउ उन आपणइ,
कुल की कार न मूकी ॥२॥क०॥ नटरत वखत लिखत जु छठीकउ, याही मइ सब छूकी। इण वचने 'जिनराज' पलक मइ, सारी खलक रजू की ॥३क
जकड़ी गीत देह चेतन-वृत्ति
राग-जइतसिरी, धन्याश्री मिश्र लालण मोरा हो, जीवन मोरा हो अब कित मौन गही,
मइ तेरइ पग की पनही ॥१॥ कोडि विलास किए तइ हिल मिलि,
क्या चित तइ उतरी अबही ॥२शाला०॥