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________________ सीता विरह (३) मदोदरी वाक्यम् राग-गुण्ड मल्हार सीय की भीर रघुवीर धायउ । बधी जब पाज तब नाव हाजति टरी, गि अति अधिक उच्छाह आयउ॥१॥ नीर निधि तीर गजराज सिरि गिरि शिखर, झलहलइ सूर जिम देवरायउ। घूक दसकध तब अध सउ होइ रहयउ, , किरण लंगूर गढ लंक छायउ॥२॥सी०॥ हाक हनुमान की जानकी पदमिनी, . प्रेमरस परम आनंद पायउ । वदत 'जिनराज' मदोदरी कुमुदिनी, सोच वसि बहुत सकोच खायउ' ॥३॥सी०॥ (४) सीता विरह राग-मागणी. सीय सीय करत पीय सीय विण सब सूनउ । दोउ नयण सावण भादु भये, ऐसी भांति रूनड़ ॥११॥सी०॥ समरि समरि सोय के गण, ऊमड़त दुख दूनउ । रयणि नीद न दिउस भूख, रहत ऊणउ झूणउ ॥२॥सी०।। आयाम रटत जात, विगरि सीय अलूणउ। 'राज' धार होत मन मिलइ... " अमूणउ ॥३॥सी०॥ २- पायउ -
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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