________________
श्री सीता सती गीतम् ।
विद्याधर पडती ग्रही रे हा, चूकउ देखि सरूप म०॥ ते मुनिवर प्रतिबूझव्यउ रे हा, दाखी विषम विरूप ।।म०४।।
प्रीतम सुर आवइ तिहां रे हां,पाय प्रणमइ कर जोडि ।म०। - सुर सानिधि व्रत आदरइरेहा, माया ममता छोडि ।म०॥५॥ नंदन नमिराजा थयउ रे हां, पूरब करम विसेष म०॥ शिव सुख पामइ सासता रे हां, जग माहि राखी रेख ।म०६ जे अवसर चूकइ नही रे हा, पालइ सील रसाल म०॥ 'राजसमुद्र' कहइ तेहनइ रेहा, करूं प्रणाम त्रिकाल ।।म०७।।
श्री सीता सती गीतम्
राग-सोरठी. जब कहइ तुझ वनवास रे, सारथी भरि नीसास रे। सासन रे तास न को लोपी सकइ रे।। ऊलटथउ विरह अगाह रे, तब नयण नीर प्रवाह रे । वाहन रे नाह नगरि पाछउ तकई रे ।।१।। प्रीतम कीयउ कुण काम रे, अबला तजी वनि आम रे । आमन रे राम निठुर कीजीयइ रे । परिहरिनइ करि द्रोह रे, राखीवा निज कुल सोह रे । सोहन रे मोहन विगु क्यु जीजयइ रे ॥२॥ कीधी न का खल खच रे, साभली पिशुन प्रपंच रे पचन रे रचन न प्रीउ पूछया वली।। पूरवी सउकि उमेद रे, हराविस्यइ ते द्र वेद रे । वेदन रे खेद न वचन साभली रे ॥३॥ आवियउ लंक सहेज रे, सतउ न मुख भरि सेज रे।