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सती कलावती गीतम्
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हिव मुझ करिज्यो सार,वइगी जउ मन मानइ ताहरइ ॥६ए० कवण कीयउ अपराध, प्रगट थइ मझ नइ समझावियइ।। अबला करइ विलाप, नाह निहेजउ किम परिचावियइ॥७ए० कठिन विरह निसि दोस, प्राणी तुझ नइ सहिवउ छइ । सइगू साथ म मूकि,
एहवउ साथ न को मिलस्यइ पछइ ॥८॥ए०॥ आलि मारगि दोइ, इक जास्यइ पीहर इक सासरइ । चोर लिखित सपेखि, पहु चइ भीम सुता निज पीहरइ ॥९ए० कीधा कोडि जतन, अनुपम शोल रतन राखण भणी । आइ मिलै नल रोय,
आस फली सफली हिवं आपणी ॥१०॥ए०॥ आज भलइ सुविहाण आज घड़ी सुघडी लेखइ पड़ी। इम बोलइ मुनि'राज' सोहइ शील सुरगी चूनड़ी ॥११॥ए०॥
- सती कलावती गीतम् बाहे पहिरथा बहरखा बांधव मूक्या जेह मन मोहन। राणी सहियर आगलइ, एम कहै सुसनेह ।।मन०॥१॥ धन धन सती 'कलावतो,' समरोजइतसू नाम ॥म०॥ जग मई साकउ राखियउ,
सुर नर करइ प्रणाम ।।मन०॥२॥१०॥ मुझ मन मिलिवा अलजयउ, साचउ साजण सोइ ।।म०॥ जिण ए मुक्या बहिरखा,
तिण सम अवर न कोई ॥मन०॥३॥१०॥ धनवेला धन सा घड़ी, धन दिवस धन मास म०॥'