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श्री स्थूलिभद्र गीतम्
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सिगड़ी रची सिर ऊपरइ,
चिहु दिसि बांधी रे माटी नी पालि ॥५॥ वेदना जिम अधिकी वधइ, तिम वधइ मन परिणाम । चवदमइ गुणठाणइ चड़ी, मुनि पामइ रे अवचल ठाम ॥६॥ देवकी जामणि नइ थई, ते रयणी वरस हजार । दिवा भावी प्रहसमइ, पणि नवि दीठउ रे प्राण आधार ७ पूछता प्रभु माडो कहइ, राति नी वीतग वात । हरि देखी हियडउ फूटिस्यइ,
तिण कीघउ रे रिषीजी नउ घात ||८या०॥ उपसम सुधारस सेवीयइ, पामीयइ अविचल राज । * मन रगे साधु महतना,इम गुण गावइ श्री 'जिनराज' या०
श्री स्थूलिभद्र गीतम्
राग-कानडौ धूलिभद्र न्यारी भाति तिहारी, हु तेरी बलिहारी ॥थू०॥ भोजन सरस युवति सगति तजि, होत अवर ब्रह्मचारी ।१थू० या चित्रसाली वा सुख सैय्या, पूरव परिचित नारी ॥५०॥ भर यौवन अरु भर पावस रितु, षट रस कउ आहारी ।२थू० राखी अपणी टेक अखडित, गणिका भी निस्तारी ॥५०॥ श्री 'जिनराम' कहालू वरणइ, तेरउ तू अनुहारी ॥३॥थू०॥ श्री विजयसेठ विजया सेठानी गीतम्
राग नट आली भन वो प्रिय धान वा प्यारी।