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' . श्री सनत्कुमार मुनि गीतम्
७३ व्रत छ?इ वरसइ लियइ रे, मुझ मन अचरिज एह रे ।३।मु०। ग्रहणा नइ आसेवना रे, सीखइ सिख्या दोइ । एक दिवस बाहिर गयउ रे, हरियाली भुइं जोइ रे ॥४॥मु०॥ साधु नजरि टाली करी रे, पूरब रीति संभालि । वहतर पाणी थभियउ रे, बाधी माटी पालो रे ॥शामु० तरती म की काचली रे, बालक रामति काज। जोवउ माहरी बेडली रे, पार उतारइ आज रे ॥६॥मु०॥ आव्या थिवर इसुकहइ रे, ए कुण तुझ आचार। . पच महाव्रत आदरथा रे, उत्तम कुल अरणगार रे ॥७॥मु०॥ मुनिवर पचतावउ करइ रे, मइ कण कीधउ काम । वात थिवर जेहवइ कहइ रे, भगवन भाखइ तामो रे ॥८॥मु० मा होलह मा खिसहइ रे, मा निदह करि रीस। चरम देहवर एह अछइ रे, अईमत्तउ मुझ सीसो रे ।।६।।मु० आठे अरिअण निरदली रे, पाम्यउ शिवपुर वास। 'राजसमुद्र' गुण गावतां रे,अविचल लील विलासो रे । १०म०।
श्री सनत्कुमार मुनि गीतम् । जी हो सोहम इद प्रससियउ जी हो रूपवंत धरि रेख । जी हो जोवा आव्या देवता हो जी दोठउ अति सुविशेष ॥१॥ महामुनि धन धन 'सनतकुमार'। जी होतण जिम राज रमणि तजी हो जी लीवउ संजम भार ।२। जी हो राजसभा लगि आवतां हो जी प्रगटयउ रुहिर विकार। जी हो पाणी वल माहे थइ होजी देही अवर प्रकार ॥३॥ जी हो चउसठिउ सहस अ तेउरी हो जी करती कोड़ि विलाप।