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जिनराजसूरि-कृति कुसुमांजलि
अनुत्तर सुर सुख भोगवी जी, लहि मानव अवतार । महाविदेहइ सोझस्यइ जो, 'राजसमुद्र' सुखकार ||१७||म०
श्री अरहन्नक साधु गीतम् नवलउ नवलइ वेस, विहरण वेलायड रिष पागुरपउ। नव वारी नगरीह, सेरी माहे भमतउ पातरयउ ||१|| ए माहरउ नान्हडीयउ, कहु किम नयणे निरखोयइ । ए माहरउ वालूयडउ, विग दीठा किम परखीयइ ।। ए माहरउ 'अरहन्नउ', आवि मिलइ तउ हरखीयइआं०॥ आव्या सगला साध, दूर गया हु ता जे गोचरी। नायउ इक अरहन्न, तब जणणी जोइवा सचरी ।।शाए०| कंचण कोमल काय, तडतडइ तावड़ि ऊभउ रहइ। देखी रूप अनूप, इक नारी तेडावो नइ कहइ ॥३।।ए०॥ भोगवि वंछति भोग, नीच करम भिक्ष्या कुण आचरइ। भागा एकवटाह, प्रेम विलूधउ मुनिवर आदरई ॥४॥ए०॥ माता करइ विलाप, सास तणी परि खिण खिण संभरइ । साचउ साजण सोइ, आण मिलावइ जो इग अवसरइ १५ग० उयर धरयउ दस मास, जे सुत वीसारयउ नवि वीसरइ। ते मुझ झड़फी लोध, जोवउ न्याय नही जगदीस रइ।।६॥ए०॥ किहा मारउ अरहन्न दीठ, सहु कोनइ धरि धरि पूछइ जइ । ए ए मोह विकार, गलीय गली भमती गहिली थई ॥७॥ए०॥ आपण पइ सुरराय, कहिन सकइ भद्रा नउ,दुख गिरणी। सो मह किम कहिवाइ,जाण्इ माता पुत्र वियोगिणी॥८॥ए०॥ सालइ अधिक सनेह, खिरा चालइ खिरण वइसी नई रडइ।