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________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि सा तिण नर तिरि वेयण जोग पयडि छग छेह । छह हवइ वलि बीय कसाया जिण ए उदय न जावइ ।। इम पचमि थानकइ सवे मिलि दस ए वधन आवइ । हिव छठुइ थानकइ पमत्तइ तेसठि पयडी वध ||१३|| अपमत्त गणसठि अहवा अडवन थाइ। टलइ सोक अकित्ती अथिर असुभ असाय।। तिम अरइ सुराउ तणी भयणा सुविचार। भाराहर अ गोवंग मिलइ इहां सार । सारठु मगा नियट्ट तणा हिव भाग रचीजे सात । तिहा पहिलइ भागइ सवि बधइ अडवन पुव्व विख्यात ॥ बीयादिक पण छपन्न निद्दा पयला दोइ । पडि न बंधइ जिणइ तहाविह अज्जवसाण न होइ ॥१४॥ हिव सत्तम भागइ वधइ पयडि छवीस । सुर गइ अणुपुव्वी इम पभणइ जगदीस ।। तस नव नेउव्विय अंगों अंग निमाण । जिण नाम पणिदिय जाइ पढम सठाण ॥ गुणठाण भणीजइ तेय कम्म तणु वण गंध रस फास। अगरुलहू उवथाय वली तिम परा थाय उसास ॥ आहारग दुख सुख गइ मिलीयां सव्व पयडि ए तीस । इह वट्टतउ जोव न बंधइ तिम बंधइ छगवीस ॥१५॥ कीजइ अभियटना पंच विभाग उदार । । बावीस पयडि तिहां भागइ पहिलइ धार ।। रति हास दुगंछा भय ए न रचइ च्यार।
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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