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जैन साहित्य प्रकाशन मन्दिर की स्थापना के तीन चार वर्षों के बाद मापने 'प्रज्ञा प्रकाशन मन्दिर' की स्थापना की। इसके माध्यम से विशिष्ट कोटि का साहित्य प्रकाशन प्रारम्भ किया। इसमे अब तक 10 ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं।
काव्य, निबन्ध, टीका तथा प्राध्यात्मिक साहित्य की सृष्टि के समान ही, श्री धीरजलाल भाई ने नाट्य लेखन मे भी पूरी सफलता प्राप्त की है। आपके द्वारा सती दमयन्ती, शालिभद्र, सकल्पसिद्धि याने समर्पण, काचा सूतरना तातणे, बन्धन तूटया, हजी बाजी छे हाथ मा, श्री पार्श्वप्रभाव, कारमी कसौटी, जागी जीवनमा ज्योति जैसी अनेक रचनाये लिखी गई और क्रमश. पुस्तक प्रकाशन समारोह के अवसरो पर सफलतापूर्वक मच पर प्रदर्शित हुई । आपने जीवन मे सदा गतिमान रहने मे ही आनन्द माना है । वही कारण है कि अनवरत कुछ न कुछ लेखन चलता ही रहा है । ग्रन्थावली, पत्र-पत्रिकाएँ तथा अन्यान्य पुस्तिकामो के सम्पादन के अतिरिक्त अनेक ग्रन्थो, स्मारक ग्रन्थो, विशेषाको आदि का सुरुचिपूर्ण सम्पादन भी आपके हाथो से सम्पन्न हुआ है।
भारत की प्राच्य विद्यानो मे रुचि रखने वाले तथा प्रतिभा के धनी प धीरजलाल भाई ने अपने स्वाध्याय एव श्रम से अनेक प्रकार की विद्यानो को प्रात्मसात् किया है । विद्यार्थी वाचनमाला मे श्रीमद् राजचन्द्रजी का जीवन चरित्र लिखते हुए आपके मन मे शतावधानी बनने की रुचि जागृत हुई । बाद मे प सन्तबालजी के समागम से मार्ग-दिर्देशन प्राप्त कर सतत प्रयत्न करते हुए आप 'शतावधानी' बने । वीजापुर गुजरात मे सकल सघ के समक्ष दिनाक 29-9-1953 ई. मे आपने प्रथम बार शतावधान के प्रयोग किये और वही प्रापको सम्मानपूर्वक 'शतावधानी' पदवी से विभूपित किया गया ।
इस विद्या के साथ ही आपने गणित के प्राश्चर्यजनक प्रयोगो मे अच्छा कौशल प्राप्त किया और अनेक प्रयोगो के प्रदर्शन द्वारा बडे-बडे गणितज्ञो को चकित कर दिया। आपके शतावधान एव गणित के प्रयोगो का प्रदर्शन भारत के अनेक शहरो मे सफलतापूर्वक होता रहा है। इस विषय मे आपने गणित चमत्कार, गणित रहस्य, गणित सिद्धि और स्मरण कला नामक चार ग्रन्थ लिखे। इनमे 'स्मरण कला' हिन्दी में अनुवादित होकर पाठको को प्रस्तुत है ।