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पत्र तेरहवां
कल्पना का विकास और उपयोग
प्रिय बन्धु !
महान् जल प्रपात से उत्पन्न हुई विद्य त् शक्ति को यंत्रों द्वारा पकड़ने पर जैसे वह अनेक प्रकार के कार्य करती है-वैसे ही कल्पना भी व्यवस्थित होने पर अनेक प्रकार के कार्य कर सकती है।
इसलिए सर्व प्रथम मन से निरीक्षण करने की आदत डालना आवश्यक है। तुम पूछोगे कि देखने का कार्य तो आँख से होता है, मन से कैसे देखा जाए ? तो यहाँ देखने का अर्थ कल्पना के द्वारा चित्र को खडा करना है। इसलिए पहले पहल एक आसन पर स्थिरता से बैठो, आँखें बन्द करो। मन से एकाग्र बनो, और किसी वस्तु की कल्पना करो।
दृश्य पदार्थों की कल्पना सहजता से की जा सकती है जैसे कि- पशु, पक्षी, जलचर, चीटियाँ, वनस्पति, मनुष्य, वस्तुएं, पानी आदि । इसलिए दृश्य पदार्थों को ही पहला स्थान दो। उनमे भी बहुत परिचित वस्तुप्रो की कल्पना जल्दी आ सकती है। जैसे कि
गाय, भैस, घोड़ा, गधा, हाथी, ऊँट, (पशु) कबूतर, कौया, मोर, चिड़िया, तोता, मैना (पक्षी) मेढक, मछली, मगर (जलचर) चीटी, मकोड़ा, बिच्छ, दीमक, (कीट) श्राम, इमली, सीग (वृक्ष विशेष) नीम, बबूल, महुआ (वृक्ष) बाजरी, ज्वार, गेहूँ, चावल, चना, मूग, मोठ, उडद, (धान्य) गुलाव, कमल, केवडा, चपा, मोगरा, सूरजमुखी (फूल)