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________________ तो क्या केवल भावना से ही कार्य सिद्ध हो जाता है ? जिनकी भावना शुद्ध है वे इस मतलब का प्रश्न नही करते । इस मतलब के प्रश्न वे ही पूछते हैं जो शुभ भावना के अप्रतिम सामर्थ्य से अज्ञात हैं। यदि आप शुभ भावना के मामर्थ्य का अनुभव करना चाहो तो केवल तीन दिन तक आप किसी भी एक जीव को शुभ भावना का विषय बना कर यह अनुभव कर सकते हैं । सघन अन्धकार को नष्ट करने मे जो कार्य प्रकाश-किरण करती है, वही कार्य केवल स्वार्थ के विचार मे लुब्ध चित्त मे परार्थ-परायणता की किरण करती है। अतः यह कार्य अधिकतम दुष्कर माना गया है। इस ससार मे सर्वथा सस्ती और सर्वथा महगी यदि कोई वस्तु हो तो वह भाव ही है । उसके द्वारा जिसका चित्त पूर्ण हो, जीवन रगा हुआ हो उसका कौनसा शुभ कार्य अपूर्ण रह सकता है ? शुभ भाव से सुरभित व्यक्ति का जीवन के केन्द्रवर्ती बल भी यह भाव ही बन जाता है, अत वह उसे अशुभ भाव, अशुभ वाणी एव अशुभ व्यवहार की ओर जाने नही देता और कदाचित् कोई व्यक्ति यदि उस दिशा मे फिसल जाता है तो भी वह उसे दूसरे ही क्षण अपने नियन्त्रण मे कर लेता है। __ अतः शुभ भावना रखने से कार्य सिद्ध हो अथवा न हो-यह प्रश्न करने की अपेक्षा शुभ-भावना-युक्त, मित्रता आदि भाव-युक्त जीवन यापन करने का शुभ प्रारम्भ करना उस यही प्रश्न का यथार्थ उत्तर प्राप्त करने का राज-मार्ग है। देखिये, स्वय श्री तीर्थकर परमात्मा की आत्माए भी उत्कृष्ट प्रकार की भावदया से भावित होकर और उसी के अचिन्त्य सामर्थ्य से प्रेरित होकर तदनुरूप तपोमय जीवन मे अग्रसर होती है, क्योकि इस भाव-दया का यह स्वभाव है कि वह उसके अनन्य उपासक को पर-भाव की ओर जाने से रोकती है। ९६ मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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