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________________ चुनौती स्वरूप इस प्रश्न से भी वे पीछे नही हटते परन्तु कर्म सत्ता के समस्त गात्रो को शिथिल करने वाली परमोत्कृष्ट भावना का नाभि-नाद करते हैं। "जो होवे मुझ शक्ति इसी, सवि जीव करूं शासन रूपी।" "श्री तीर्थंकर परमात्मा के विशिष्ट दलदार आत्मा के इस परम सकल्प का त्रिभुवन पर एक छत्र साम्राज्य है, है और है । : इस परम सकल्प अर्थात् उत्कृष्ट भाव-दया से अपनी समग्रता को अत्यन्त भाव पूर्ण वनाने वाले वे परम दयालु बीस स्थानक तप की विविध से, उच्च परिणाम से प्राराधना करके त्रिभुवन-तारणहार श्री तीर्थंकर-नाम-कर्म की निकाचना करते हैं । तनिक सोचिये, कितने उत्कृष्ट परार्थ मे परम दयालु परमात्मा की आत्मा ने अपनी समग्रता को प्रयुक्त करके भावना भाई-"सवि कर शासन रसी" की ! वहाँ भव्य अथवा अभव्य का भेद ही नहीं रखा, न पापी अथवा पुण्यशाली का, न रक अथवा राजा का, न निर्धन अथवा धनवान का, न ऊंच अथवा नीच का, न क्षुद्र अथवा सुपात्र का, न किसी गति अथवा जाति का भेद रखा । IAL बस, केवल एक ही भावना भाई कि “तीन लोको के समस्त जीव मेरे आत्म-बन्धु है, उनका दु ख मेरा दुःख है और उनके सुख मे ही मेरा सुख है।" अंत यदि मुझ मे ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाये तो समस्त प्राणियों को परमात्म शासन के रसिक बनाकर इन कर्मो के भयानक बन्धनो से मुक्त कराऊँ।" यह है प्रकृष्ट पार्थ-परायणता, का उत्कृष्ट स्वरूप । उन परम दयालु परमात्मा की आत्मा इतनी उत्कृष्ट परार्थ-परायणता अर्थात् भाव-दया को केवल पांच-पच्चीस घण्टो, माह अथवा वर्षों तक ही नही रखते, परन्तु निरन्तर तीन भव के समग्र काल को उक्त भाव-दया के द्वारा रग देते हैं, जिससे चरम भव मे उनका प्रत्येक रोम-रोम दया. रूपी गगा ९४ मिले- मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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