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________________ श्री अरिहन्त परमात्मा के असीम उपकार तारणहार श्री तीर्थकर परमात्मा प्रकृष्ट पुण्य के निधान होते हैं जिस पुण्य के प्रभाव से जघन्य से जघन्य कोटि-कोटि देव, देवेन्द्र, दानवेन्द्र और मानवेन्द्र उनकी उत्कृष्ट कोटि की पूजा, सेवा और भक्ति करने मे गौरव का अनुभव करते हैं, अपने तन, मन, धन और जीवन की कृतार्थता समझते हैं। परन्तु प्रश्न उठता है कि इस प्रकार का प्रकृष्ट कोटि का पुन्य उन्होने किस प्रकार उपाजित किया होगा तनिक आगे बढ़ कर सोचने से तुरन्त उसका समाधान भी हो जाता है । प्रकृष्ट परार्थ-परायणता सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, जल, वायु आदि के जितने प्रकट-अप्रकट उपकार है, उनसे अनन्त गुने प्रकट-अप्रकट उपकार जिनके हैं, उन श्री तीर्थकर परमात्मा का आत्म-द्रव्य विशिष्ट कोटि का दलदार होता है । गेहूँ के समस्त दानो मे विशिष्ट दलदार दाना अलग निकल आता है, उसी तरह से विश्व की समस्त आत्माओ मे विशिष्ट आत्म-दलदार श्री तीर्थंकर परमात्मा की आत्मा अलग निकल आती है। विशिष्ट प्रकार का यह आत्म-दल उन्हे उत्कृष्ट कोटि के परमार्थ मे लगाकर प्रकृप्ट पुण्य के स्वामी बनाता है । मिल मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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