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स्वानुभव दशा का प्रभाव अपरम्पार है । वह स्व-पर उपकारी है. जड के चेतन पर स्वामित्व को नष्ट करने मे अद्वितीय है। इस प्रकार का योगी विश्व के किसी भी क्षेत्र में रह कर भी सूर्य-चन्द्र से भी अधिक उपकार विश्व पर करता है।
वचन एवं असंगता का कार्य-कारण भाव
वचन-अनुष्ठान के प्रति सर्वथा स्वामि-भक्त (वफादार) रह कर असग अनुष्ठान मे प्रवेश हो सकता है ।
'अ-सग' अर्थात् वाह्य-अभ्यतर निर्ग्रन्थता, सर्व सग रहितता।
जिस प्रकार डडे से चक्र को घुमाने के पश्चात् कुछ समय तक डडे की सहायता के बिना भी वह चक्र (चाक) घूमता रहता है, उसी प्रकार से सम्यग्-ज्ञान की तीक्ष्णता द्वारा ध्यान मे तन्मय बना साधक अमुक समय तक शास्त्र-ज्ञान की सहायता के बिना भी स्व स्वरूप के ध्यान मे लीन रह सकता है। तब वचन-अनुष्ठान असग-अनुष्ठान का कारण बनता है और असगअनुष्ठान उसका कार्य बनता है।।
असग दशा का काल अत्यन्त अल्प होता है। अत: कुछ समय तक आत्म-अनुभव का प्रास्वादन करके साधक पुनः वचन-अनुष्ठान का प्राश्रय लेता है
इस प्रसग दशा मे ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकतारूप समापत्ति सिद्ध होती है, सकल्प-विकल्प की कमिया शान्त हो जाती हैं और चित्त की अनुपम स्थिरता के द्वारा अविकल्प दशा की अनुभूति होती है, जिसमे निरजननिराकार-ज्योति-स्वरूप सत्ता से सिद्ध परमात्मा तुल्य आत्मा की साक्षात् अनुभूति होती है । उस समय स्वभाव के सर्वोत्कृष्ट सुख का अनुभव होता है, शान्ति-समता का अस्खलित प्रवाह प्रवाहित होने लगता है, चन्दन एव सुगन्ध का अभेद प्रात्मा एव समता के मध्य स्थापित होता है।
कहा भी है कि 'जिस मुनि को आत्मा मे शुद्ध स्वरूप का दर्शन एव विशेष ज्ञान हुआ है अर्थान् मेरी आत्मा भी अनन्त ज्ञानादि गुण पर्याय से
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मिले मन भीतर भगवान