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________________ भी शुद्धआत्म-स्नेह है। श्रात्मा ही उपादेय है, जेय है और ध्येय है। ज्ञात करने योग्य भी प्रात्मा है और आदरणीय भी एक प्रात्म-तत्त्व ही है । वह चिन्मय एव आनन्दमय है, नित्य एव स्वाधीन है। सब जानकर भी जिसने एक आत्मा को नहीं जाना उसने कुछ नही जाना। शुद्ध' निज प्रात्मस्वरूप के यथार्थ ज्ञान विहीन समस्त ज्ञान एक के अक विहीन शून्यो के समान है। जो मनुष्य प्रात्म-स्वदप का सच्चा परिचय प्राप्त कर सकते हैं, उन्हे .ही परमात्म स्वाप का सच्चा परिचय प्राप्त होता है ।। जिस व्यक्ति ने एक प्रात्म-तत्त्व का निश्चय कर लिया उसे परमार्थ से समस्त तत्त्व का, समस्त चराचर विश्व का निश्चय हो ही जाता है । कहा है कि--"जो एग जाणई सो सव्व जाणइ" --श्री प्राचाराग सूत्र शुद्ध प्रात्म-स्वरूप का ठोस परिचय प्राप्त होने पर परमात्म-स्वरूप से यथार्थ परिचय हो ही जाता है क्योकि परमात्म-तत्त्व प्रात्मा से भिन्न तत्त्व अथवा पदार्थ नही है। यह तो प्रात्म-तत्त्व का ही परम विशुद्ध स्वरूप है जिसका यथार्थ स्पर्श श्री अरिहन्त परमात्मा की भाव युक्त भक्ति के प्रभाव मे साधक को होता है। इस प्रकार के स्पर्श के पश्चात् डांवाडोल चित्त अडोलता धारण करता है, निज उपयोग से कदापि भ्रष्ट नहीं होने वाली आत्मा के उपयोग मे स्थिर रहता है। यह स्थिरता परमानन्द समाधि का बीज बनता है, जो जन्मान्तर मे साधक के साथ रह कर साधक को साध्यमय बनाने का अपना कर्तव्य पूर्ण करता है। इस प्रकार का परमात्म-स्वरूप मेरी आत्म मे भी है यह जानकर उसे प्रक्ट करने के लिये साधक परमात्मा के नाम आदि निक्षेपा के आलम्बन द्वारा उनके स्मरण और ध्यान मे आगे वढता है। प्रत्येक छाम्य के लिये परमात्मा के चारो निक्षेपा के पालम्बन श्रावश्यक ही नहीं, परन्तु अनिवार्य है। इन चार निक्षेपा मे से किसी एक ७० मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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