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________________ शास्त्र सर्वतोगामी चक्षु है। शास्त्र समस्त प्रयोजन सिद्ध करने वाला कल्प-तरु है। शास्त्र अज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाला तेजस्वी तारा है। शास्त्र द्वितीय दिवाकर एव तृतीय लोचन है। शास्त्र जीवन की ज्योति, अन्तर की उपा और उज्ज्वल भविष्य की भी है। शास्त्र मोह के साम्राज्य को परास्त करने वाला अमोध शस्त्र है । शास्त्र विकार के वादल को विलय करने वाली विराटकाय वायु है । शास्त्र पर-भाव को परास्त करके स्व-भाव मे स्थिर करने वाला सद्गुरु है। शास्त्र सच्चा सखा, वन्धु, मित्र, स्नेही और वैद्य है। शास्त्र पयोधि के बिना ही प्रगट हुआ पीयूष और अन्य की अपेक्षा मे रहित ऐश्वर्य है। शास्त्र धर्म रूपी उद्यान को पुलकित करने वाली अमृत की नाली है। इस प्रकार के अपार उपकारी शास्त्रो पर (श्री जिन-वचन पर) जिसे अनन्य श्रद्धा है, जो शास्त्रो मे वर्णित श्राचारो का पालन करने वाला है, जो शास्त्रो का ज्ञाता एव उपदेशक है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे, व्यवहार मे शास्त्र को अपना नेत्र बनाकर चलता है, ऐसा योगी परम-पद प्राप्त करता है। प्रश्न:-शास्त्रो का इतना गुण-गान क्यो किया गया है ? उत्तर -शास्त्र सर्वज्ञ वीतराग श्री तीर्थंकर परमात्मा के वचनो का सग्रह है। श्री तीर्थंकर परमात्मा की अनुपस्थिति मे उनके वचन ही भव्य जीवो के लिये प्राधार हैं। मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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