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इस प्रकार परमात्मा की भक्ति के प्रताप से साधक की आत्मा विशुद्ध, विशुद्धतर भूमिका को प्राप्त करती-करती अन्त मे परमात्मा बन जाती है।
प्रश्न-क्या जिनागमो मे भक्ति का स्थान है ?
उत्तर--भक्ति एव विनय पर्यायवाची हैं, एकार्थक है । आगम ग्रथो मे विनय एव भक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्री उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन मे विनय की शिक्षा दी गई है।
श्री आवश्यक सूत्र मे चउवीसथ्थो एव वन्दन अध्ययन द्वारा भी देवाधिदेव परमात्मा एव गुरु की विनय (भक्ति) को आवश्यक कर्त्तव्य के रूप मे व्यक्त किया गया है।
_ 'चैत्यवन्दन भाष्यादि' ग्रन्थो मे परमोपकारी श्री अरिहन्त परमात्मा की भक्ति, शास्त्रोक्त विधि पूर्वक चैत्यवन्दन करने के सुन्दर निरूपण द्वारा व्यक्त की गई है।
एव चैत्यवन्दन (स्तुति) का फल स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो व्यक्ति विधिपूर्वक भावोल्लास से चैत्यवन्दन करता है, वह शीघ्र परमात्म-दर्शन, सम्यग्-दर्शन आदि प्राप्त करके क्रमश परम पद प्राप्त करता है।
'श्री उवसग्गहर स्तोत्र' मे श्रुतकेवली भगवत श्री भद्रबाहु स्वामीजी ने भक्ति-पूर्ण हृदय से श्री पार्श्वनाथ परमात्मा की स्तुति करके उसके फल के रूप मे बोधि-परमात्म-दर्शन की याचना की है।
'श्री जयवीयराय सूत्र' मे पूर्ण विनय-भक्ति झलक रही है ।
'नमस्कार महामत्र' मे भी 'नमो' शब्द परमात्मा की प्रीति एव भक्ति का द्योतक है । 'श्री दशवकालिक सूत्र' मे विनय-भक्ति को धर्म-वृक्ष की मूल कहा गया है।
ज्ञानादि पांचो प्राचारो मे भी विनय-भक्ति व्याप्त है।
मिले मन भीतर भगवान
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