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________________ फिर भी प्रीति नीव है, उस पर भक्ति रूपी भव्य प्रामाद का निर्माण होता है। इस प्रकार प्रीति और भक्ति परम्पर गये हुए हैं। प्रीति में आकर्षण मुख्य है, भक्ति मे स्थिरीकरण मुख्य है, तो भी दोनो अपने-अपने स्थान पर समान महत्त्व के है। प्रश्न-प्रीति राग स्वस्प है और गग पाप-स्थानक होने से कम-बन्धन का हेतु है, तो उसके द्वारा परमात्म-दर्शन कैसे हो सकता है ? उत्तर-कचन, कामिनी, काया आदि बाह्य पदार्थों के प्रति की प्रीति अप्रशस्त राग-स्वरूप होने से वह अशुभ कर्म-बन्धक होती है, परन्तु परमात्मा, सद्गुरु एव स्वधर्मी आदि की प्रीति प्रशस्त राग-स्वरूप होने से शुभ कर्म की बन्धक होती है तथा यह विशुद्ध भक्ति-भाव उत्पन्न करने वाली होने से पाने वाले अशुभ कर्मों को रोक कर पूर्व कर्मों का भी विनाश करती है । इसलिये वह परमात्म-दर्शन का प्रथम माधन है । प्रश्न- अमग अनुप्ठान अथवा समाधि अथवा तन्मय अवस्था परमात्मदर्शन के साधन हैं, यह बात तुरन्त समझ मे आ जाती है, परन्तु प्रीति से परमात्म-दर्शन कैसे होता है ? उत्तर-प्रीति निष्काम और निरुपाधिक प्रेम-स्वरूप है वह भक्ति, वचन और असग अनुष्ठान का मूल है । श्रद्धा, रुचि अथवा इच्छा जागृत हए विना किसी भी साधना का प्रारम्भ हो ही नही सकता, तथा साधना-काल मे भी श्रद्धा, रुचि अथवा इच्छा उत्तरोत्तर प्रबल होती जाती है तो ही साधना की सिद्धि होती है । अत प्रीति परमात्म-दर्शन का मूल कारण है। प्रश्न-प्रात्म-ज्ञान अथवा अन्य योग-सावना से भी प्रात्म (परमात्म) दर्शन हो सकता है तो परमात्म-भक्ति को ही क्यो प्रधान मानते हैं ? ५४ मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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