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परा भक्ति
फिर उस भक्त को मुक्ति की अभिलापा भी नहीं रहती। उसके दस प्राणो, सात धातुप्रो और साढे तीन करोड रोमो मे प्रभु-भक्ति का अमृत ऐमा परिणत हो जाता है कि उसकी कोई अभिलापा ही नहीं रहती, उसकी समस्त कामनाएं सरलता से समाप्त हो जाती है। स्वप्न मे भी यदि कोई इच्छा आशिक रूप से उसे हो जाये तो वह तरन्त उठ बैठता है और अश्रुधारा वरसा कर अपने पापो को धोता है, धोकर उन्हे पावन करता है ।
सती नारी के मन के किसी कोने मे भी कभी पर-पुरुष का विचार नही पाता, उसी प्रकार से परा भक्ति-युक्त भक्त के मन के किसी भी कोने मे परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई प्रवेश नही पा सकता।
हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर कौए नही पहुंच सकते, उस प्रकार से ऐसे भक्त के मन के उत्तुग शिखर पर दुर्विचारो के वायस नही पहुँच सकते । खाते-पीते, उठते-बैठते, कुछ भी कार्य करते तथा साँस लेते-छोडते समय ऐसे भक्त का उपयोग भगवान मे ही होता है ।
इस प्रकार की भक्ति को 'परा भक्ति' कहते है।
परा भक्ति अर्थात विशुद्ध एव ठोस भक्ति, सघन भक्ति ।
इस परा भक्ति द्वारा आकर्षित परमात्मा भक्त के मन-मन्दिर मे निवास करता है और भक्त अल्प-काल मे ही भव-भ्रमण का अन्त लाकर शाश्वत सुख का भोक्ता बनता है।
परमात्म-तत्त्व मे ही यह स्वाभाविक परम सामर्थ्य है कि जो अपने अनन्य शरणागत को स्व तुल्य बना देता है ।
परमात्मा का परम पावन दर्शन प्राप्त करने के लिये तरसते-तडपते साधक के लिये भक्ति द्वितीय चरण है। प्रीति-योग मे पारगत होकर भक्ति
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मिले मन भीतर भगवान