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________________ आप मुझे अपना बना लो। मेरी जीवन-नैया की पतवार सभाल कर पाप मेरा उद्धार करो। हे नाथ । सर्वस्व समर्पण-योग के इम माधना-पथ मे मेरे पाँव न लडखडाये, मेरा मन चल विचलित न हो जाये, उसके लिए पाप मेरे अन्त करण मे सम्यग्दर्शन का दीपक प्रज्वलित करें। हे करुणा-सिन्धु । अापके चरण-कमलो की सेवा की मुझे भवो भव भट दें उम सेवा के सुख की मैं अभिलापा करता हूँ। आपके चरणो की मेवा ही मेरे मन मे सर्वस्व है । हे अनन्त ज्ञानी प्रभु । अापकी भक्ति से मुझे यह सव अवश्य प्राप्त होगा, ऐसी अटल श्रद्धा मेरे अन्तर मे है, फिर भी अन्तर की अधीरता आपसे याचना कराती है। इस प्रकार की अवीरता सात्विक भक्ति का एक लक्षण होने मे मम्मानसूचक है, अत मुझे उसका तनिक भी शोक नही है । इस प्रकार भ क प्रभु-भक्ति मे अग्रसर होता ही रहता है और उसके जीवन मे परमात्मा के प्रति श्रद्धा, ममर्पण एव आज्ञा-पालन के गुण अधिकाधिक विक्रमित होते रहते हैं । ये तीन गुण ऐसे हैं कि जिनसे भक्त जीवन की समस्त त्रुटि कमियाँ दूर हो जाती हैं और इन तीनो गुणो को अपना अगभूत बनाकर भक्त भगवान के अधिक समीप पहुँचता जाता है। फिर भी प्रभु के दर्शन नहीं होने पर वह उन्हे मधुर उपालभ भी देता है । परमात्मा को उपालंभ हे स्वामी । अापके तो अनेक भक्त हैं, परन्तु मेरे लिये तो आप एक ही स्वामी है । श्राप मुझ पर कृपा-दृष्टि रखे अथवा न रखें, मेरी भक्ति का मृत्य समझें अथवा न समझें, परन्तु मैं आपको छोड़ने वाला नहीं है, क्योकि भगवन् । एक वार अमृत का पास्वादन करने के पश्चात् विप के प्याले की ५० मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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