________________
परमात्मा के प्रेम मे ही एक ऐसी शक्ति है कि जो उनके प्रेमी को चित्त के चचल परिणामो से मुक्त करके स्थिर परिणामी बना सकती है।
अतः निविषयी, निष्कपायी अर्थात् समस्त गुणो से सम्पन्न श्री अरिहन्त 'परमात्मा के माथ प्रेम करने से विषय कषाय युक्त प्रेम (राग दशा) का विशुद्ध प्रेम में रूपान्तर हो जाता है ।
परमात्म-प्रेम से उत्पन्न होने वाली शक्तियाँ परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम से साधना की शक्ति एव वैराग्य की ज्योति प्रकट होने से जीवन आनन्दमय हो जाता है ।
सासारिक सुख प्रदान कराने वाली वस्तुओ को प्राप्त करने के लिये मनुष्य रात-दिन जो प्रयास करते हैं उनके दसवें भाग के प्रयास भी यदि वे परमात्मा का प्रेम प्राप्त करने मे करें तो भी उनका जीवन अपार आनन्द से परिपूर्ण हो जाये।
परमात्मा की अखण्ड प्रीति का विशुद्ध प्रवाह सर्वत्र निरन्तर बह रहा है, परन्तु उसके योग्य बनने के लिये स्थूल, लौकिक, स्वार्थपूर्ण भावो के साथ प्रीत-सम्बन्ध का समूल त्याग करना पडता है और उसमे भी सर्वप्रथम अपने उत्तमाग (मस्तक) को परमात्मा के चरण-कमल मे समर्पित करने से ही उत्तम परमात्मा की प्रीति अगभूत होती है ।
एक परमात्मा के अतिरिक्त मन को शीतलता प्रदान करने वाला अन्य कोई स्थान नही है, यह तथ्य स्वीकार करके परमात्मा की प्रीति मे रग जाने मे ही बुद्धिमानी है, जीवन की सार्थकता और सफलता है ।
जल-बिन्दु सागर मे मिल जाने पर वह अक्षय अभग हो जाता है, फिर उसे सूखने अथवा शोषने का भय नही रहता।
अल्प को परम मे समर्पित करने की इस कला को प्रीति-अनुष्ठान भी कहा जा सकता है।
मिले मन भीतर भगवान