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"नामे तो जगमा रह्यो, स्थापना पण तिमही, द्रव्ये भव माहे वसे, पण न कले किमही । भावपणे मवि एकरूप-त्रिभुवन मे त्रिकाले, ते पारगत ने वदिये, त्रिहुँ चोगे स्वभाले ।
इन दो छदो के द्वारा पू ज्ञानविमलसूरि महाराज ने नाम आदि रूप .. मे परमात्मा की सर्वत्र उपस्थिति बतलाई है जो इस प्रकार है
नाम रूप मे एव स्थापना रूप मे परमात्मा विश्व मे विद्यमान है। द्रव्य रुप मे भी वे विश्व मे हैं परन्तु पहचाने नही जाते, भाव रूप मे तो परमात्मा तीनो लोको मे सदा (भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल मे) विद्यमान है, क्योकि समस्त जीवो मे चैतन्य तत्त्व (समान भाव से) विद्यमान है, उसके कारण सव की एकात्मता वाले पारगत-ससार का भेद पाये हुए परमात्मा को त्रिकरण योग की शुद्धि से शीश नवा कर वन्दन-नमन करें तो उनके दर्शन और मिलन से क्रमशः हम उनके तुल्य बन सकें।
साधक के हृदय मे कभी-कभी ऐसे विचार भी आते हैं कि यदि साक्षात् परमात्मा से मेरा साक्षात्कार हुआ होता तो सयम की उत्कृष्ट साधना हो सकती कि जिससे मै शीघ्र मुक्ति प्राप्त कर पाता, परन्तु इस काल मे, इस क्षेत्र मे किसी तीर्थंकर परमात्मा से साक्षात्कार होना सम्भव ही नहीं है, अत हमे तो केवल उसकी भावना ही बनानी है ।
परन्तु पुरुषार्थ विहीन निरी भावना से कोई कार्य सिद्ध नहीं होती। उसके लिये भावना के अनुरूप सक्रिय प्रयत्न करने ही पडते हैं । सच्ची भावना एव लगन से यदि हम पुरुषार्थ करें तो आज भी चारो प्रकार से परमात्मा का सान्निध्य निस्सन्देह प्राप्त हो सकता है।
क्या आराधक आत्मा के लिये परमात्मा का नाम साक्षात् परमात्मा की अपेक्षा कम आलम्बन रूप है ? अथवा उन परमात्मा की प्रतिमा कम आलम्बन भूत हैं ? कि जिनके दर्शन मात्र से मन की मलिनता क्षीण हो जाती
मिले मन भीतर भगवान